हम सभी जीवन मे अनुभव करते हैं कि सुख भी हैं और दुःख भी हैं और ये
ठीक ऐसे है जैसे धुप छाँव ,सूर्य उगता भी है और अस्त भी होता है ! खेल खेलते हैं
तो हार भी होती है और जीत भी ! लेकिन कोई इसमें से किसी एक को स्थायी मान लें वही
उनके दुःख का कारण है ! जो दोनों के बीच ,दोनों को स्थायी नही मानता है और दोनों
के बीच शांति से अपना जीवन जीता है ,वह बहुत आसानी से अपने जीवन को ऊँचा उठा लेता
है !
जब जब मै किसी के दुःख मे निमित्त नही बनता हूँ ,कारण नही बनता हूँ और
जितनी यथासंभव उसके सुख मे निमित्त बनता हूँ तो वास्तव मे ,मै अपने ही सुख का
इंतजाम करता हूँ !
आचार्य भगवंतों ने लिखा कि प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा ,”दया” नही
लिखा ,दया मे तो गुंजाइश है कि आ गया दया का भाव ,बस आगे बढ़ गए ! नही ठीक वैसा ही
दुःख महसूस हो रहा है जैसा दुसरे को हो रहा है इसीलिए अब मेरे से नही सहा जा रहा !
इसीलिए मै उसे बराबर बचाने का के लिए प्रयास करता रहूँ तब तो कहलाएगी अनुकम्पा !
रामचंद्र जी जब अयोध्या लौट आए थे ,राज्याभिषेक हो गया उनका ,गद्दी पर
बैठ गए ,तब सब जाने लगे ,हनुमान भी जाने लगे ! सब तो कह रहे हैं,सुग्रीव भी कह रहे
हैं कि जब भी कभी जरूरत पड़े ,तब हमें जरूर याद कर लेना ! हनुमान जी कुछ भी नही कह
रहे हैं और जाने को तैयार हैं तो सीता जी ने धीरे से कहा कि आप तो इतने भक्त हैं
आप कुछ भी नही कह रहे ,आप कुछ तो कहो ,आप भी वायदा तो करो कि जब कभी जरूरत पड़े तो .........तो
क्या कहा था उन्होंने ,मै तो यही चाहता हूँ कि रामचन्द्र जी को मेरी जरूरत कभी न
पड़े ! मतलब तुम बचना चाह्ते हो उनकी सेवा से ! नही ,मै उनकी सेवा से नही बचना
चाहता ! उन पर जब दुःख आएगा तब न ,मेरी जरूरत पड़ेगी ! मै तो चाहता हूँ कि उन पर
दुःख आए ही नही इसीलिए मेरी जरूरत ही न पड़े !
वास्तव मे तो अनुकम्पा यही है कि दुसरे को दुःख हो ही नही ,ऐसी भावना
रहे कि मेरी जरूरत ही न पड़े और अगर किसी को दुःख है तो मै उसको दूर करने का
प्रयत्न करूँ !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से
संपादित अंश
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