अगर हम एक गेंद को जोर से फैन्क्तें हैं और सामने दीवार है तो वो उसी
गति से ज्यों की त्यों हमारे पास आती है ,वही गेंद हम जोर से फैंकते हैं और सामने
रेत का टीला है तो उसी मे धंस जाती है ! वही गेंद जब हम फैंकते हैं और सामने कीचड़
है तो हमारे ऊपर कीचड़ के छींटे भी लाती है ! हमें यह ध्यान रखना है कि हमने किस के
प्रति कैसा व्यवहार किया है ,सामने वाले का राग द्वेष भी हमारे किये हुए कर्म से
प्रभावित होकर के हमें भी वैसी ही फल पाने के लिए बाध्य कर देता है ! इसीलिए कर्म
करने की जो कुशलता है वो हमें बनाकर रख लेनी चाहिये ! भले और बुरे दोनों ही प्रकार
के संस्कार हमारे जीवन मे हैं ,ये संस्कार कौन डालता है हमारे भीतर ?
कभी कभी चाह्ते हुए भी हमारा मन अच्छा करने का सोचते हुए भी क्यों
अच्छा नही कर पाता और कभी कभी हम दुसरे का बुरा सोचते हैं ,फिर भी हम दुसरे का
बुरा नही कर पाते ! आखिर क्या बात है ? कभी क्भी हम सोचते हैं कि अपने जीवन को
व्रत नियम और संयम से अनुशासित करें ,लेकिन नही कर पाते ! कभी कभी हम सोचते हैं कि
अपनी दृष्टि को निर्मल बनाएँ लेकिन हमारी दृष्टि कि विकृति नही जाती है !
कोई तो है जो इन सब मे बाधा डालता है ! जो हमें थोड़े भी व्रतों को न
होने दे ,वो भी एक तरह की कषाय है और जो हमें पूर्ण रूप से व्रती न होने दे वो भी
एक तरह की कषाय है ! वो भी हमारे परिणामों की कलुषता है ! उस मन की कलुषता को हम्
समझें तो सम्भव है कि वर्तमान मे ऐसे कर्म करें जिससे कि हमारा जीवन ऊँचा उठे ,अच्छा
बने ! रेत का एक कण भी अगर खाने की चीजों मे मिल जाए तो सारा स्वादिष्ट भोजन का
मजा भी किरकिरा हो जाता है ! यही स्थिति हमारे अपने परिणामों की कलुषता या कषाय की
है !
कषाय की तासीर है कि वो हमें अपने आपे मे नही रहने देती ,चाहे कैसी भी
कषाय हो ,क्रोध के रूप मे हमारे पास आए या अहंकार के रूप मे आए ,चाहे किसी चीज के
प्रति हमें आसक्त कर लोभ के रूप मे आए या छल कपट के रूप मे आए ,चाहे किसी भी रूप
मे आए ये हमें अपने आपे मे नही रहने देती !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें” से सम्पादित अंश
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