भगवान महावीर के समय का एक प्रसंग आज के सन्दर्भ मे बहुत
ज्यादा प्रेरक है !काल्सौस्करिक नाम का एक कुख्यात कसाई था ! प्रतिदिन पांच सौ
भैंसों का वध करना उसका रोज का काम था ! उसका इकलौता बेटा था सुलस ! कल्सौकारिक
जितना क्रूर था सुलस उतना ही दयालु था ! कल्सौकारिक के हिंसा के कृत्य को देखकर
उसके मन मे कंपकपी आती थी ! काल्सौकारिक अपने बेटे के इस व्यवहार को देखकर बड़ा
चिंतित था ! वो हमेशा अपने बेटे को हिंसा का दर्शन समझाने का प्रयास करता था !
अपने पैतृक व्यवसाय की बात सिखाता था और अपने कुलधर्म के पालन की दुहाई देता था
,लेकिन सुलस का इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था ! उसे जितना हिंसा के विषय मे
समझाने की कोशिश की जाती उसके मन मे उतनी ही करुणा बढती जाती थी ! पता नही कौवे के
घर मे कहाँ से हँस पैदा हो गया ? कल्सौकरिक अपने बेटे को समझा समझा कर रह गया
लेकिन सुलस टस से मस न हुआ ! जब कल्सौर्कारिक की मृत्यु हुई तो एक दिन सारे परिजन
इकठ्ठे हुए और सुलस को बुलाकर कहा कि आज तुम्हे अपने परिवार प्रमुख की पगड़ी पहननी
है ! अन्य दिनों मे तुम्हे जो भी करना हो सो करना परन्तु आज तुम्हे अपनी कूल
परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए एक भैंस का वध करना ही होगा !
सामने एक भैंसा बंधा हुआ था ! सुलस के हाथ मे तलवार डी जाने
लगी ! सुलस ने कहा –मै ऐसा नही कर सकता हूँ ! लोगों ने कहा कि यदि ऐसा नही करोगे
तो तुम्हारी कूल परम्परा को कलंक लग जाएगा ! तुम्हारे पिता की आत्मा को शांति नही
मिलेगी !
जब बहुत समझाने पर भी सभी नही माने तो सुलस ने तलवार को
अपने हाथ मे लिया और एकाएक अपने पैर पर प्रहार करने लगा ! पास ही खड़े व्यक्ति ने
लपककर उसे पकड़ लिया और कहा ये तुम क्या कर रहे हो ? अभी मै नही पकड़ता तो तुम्हारा
तो पैर कट ही जाता ! तुमने ऐसा क्यों किया ? सुलस ने अत्यंत दृढ स्वर मे कहा कि
जैसे मेरे प्राण हैं वैसे ही भैंसे के भी प्राण हैं ! ये बेजुबान हैं पर बेजान तो
नही ! प्राण इनके भी हैं ! यदि तलवार चलाने से ही कूल परंपरा का निर्वाह होता है
तो लाओ मै तलवार चलाता हूँ पर इस बेजुबान जीव पर नही अपने पैरों पर चलाता हूँ !
यह सुनकर सभी स्तब्ध रह गए ! बोले भाई ऐसी तलवार हमें नही
चलवानी !
बंधुओं ! ये उदाहरण है करुणा का ! ये उदाहरण है संवेदना का
! लोगों की दृष्टि मे वह भैंसा था पर सुलस की दृष्टि मे वह अपने समान जीती जागती
आत्मा थी वह उसकी हिंसा कैसे कर सकता था ?
करुणा हर मनुष्य के भीतर है ,बस जरूरत है अपनी संवेदनाओं को
जगाने की और प्रयास करने की !
आज हमारे जैन समाज मे भी कुछ बंधू चमड़े का प्रयोग करते हैं
कम से कम अगर आप मे थोड़ी संवेदना इसे पढकर जागी हो तो चमड़े से बनी वस्तुओं का
त्याग करें ! सम्पूर्ण त्याग न कर सकें तो कम से कम प्रयोग की शपथ तो ले ही सकते
हैं जिससे बेवजह काटे जा रहे पशुधन की रक्षा हो सके !
No comments:
Post a Comment