श्रुत पंचमी और उसका महत्व
भगवान महावीर के निर्वाण होने तक जिनवाणी अखंड रूप मे थी ! जिस किसी
को भी यह ज्ञान दिया जाता था उसे वह सम्पूर्ण याद हो जाता था ! मनुष्य की स्मरण
शक्ति बहुत तेज थी ! महावीर प्रभु के मोक्ष जाने के 683 वर्ष के बाद उनकी 32 वीं पीढ़ी परम्परा
मे आचार्य धरसेन जी हुए ! वह सम्पूर्ण
श्रुत अर्थात जिनवाणी के ज्ञानी थे !
आचार्य धरसेन जी गिरनार पर्वत की तलहटी मे विराजमान थे ! महान तपस्वी
थे ! उन्होंने अपना समय निकट आया जान ये विचार किया कि जिन धर्म तो पंचम काल के अन्त तक
रहेगा ही और मुनि व श्रावक परम्परा भी रहेंगी ! इसीलिए इस जिनवाणी को लेखनी बद्ध किया जाए
जिससे आने वाली पीढ़ियों को यह जिनवाणी प्राप्त हो सके ! वे यह अच्छी तरह से जानते
थे कि धर्म व संस्कृति के रक्षक हैं शास्त्र ! धरसेन जी ने आंध्रा प्रदेश मे
विराजमान आचार्य महासेन जी को सन्देश भेजा और दो सुयोग्य शिष्यों को अपने पास
भेजने के लिए निवेदन किया !
कुछ दिन गुजरने के पश्चात उन्हें स्वपन मे दो सुन्दर बैल अपने सामने
आते दिखाई दिये ! उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से यह जान लिया कि दो मुनिराज यहाँ
पहुँच रहे हैं ! ( आचार्य श्री के दीक्षा गुरु आचार्य श्रीकुन्थुसागर जी की
भद्रबाहु संहिता मे स्वपन विज्ञान का विस्तार से वर्णन है ,ये बात आचार्य
गुप्तिनंदी जी ने ही प्रवचन के दौरान बतायी )
धरसेन जी की नींद खुली तो सन्देश प्राप्त हुआ कि दो युवा दिगम्बर साधु
दर्शन की अनुमति चाह्ते हैं ! गुरु ने स्वीकृति भेजी ,वो तो वैसे ही शिष्यों का
इंतजार कर रहे थे ! दोनों शिष्यों की परीक्षा के लिए दो मन्त्र दिये ! मत्र का
अर्थ है जो हमारे मन को मंत्रित करे वह मन्त्र है !
एक शिष्य के मन्त्र जाप करने से कानी (एक आँख वाली) देवी प्रकट हुई व
दूसरे शिष्य के मन्त्र जाप करने से दो दाँत अधिक वाली देवी प्रकट हुई ! मुनियों ने
मंत्रों की समीक्षा की ! पहले मन्त्र मे एक अक्षर कम था व दुसरे मन्त्र मे एक
बीजाक्षर ज्यादा था ! मुनियों ने अपने व्याकरण ज्ञान से मंत्रो को शुद्ध किया व
फिर से जाप प्रारंभ किया ! दो सुन्दर देवियाँ प्रकट हुई ! उन्होंने प्रकट होते ही
ये कहा क्या आज्ञा है गुरुदेव ? तब मुनियों ने उन्हें वापस लौट जाने को कहा और
सम्मान से कहा कि हमें ये मन्त्र आचार्य जी द्वारा जाप करने के लिए दिये गए थे !
और कोई प्रयोजन नही था !
दोनों मुनि वापस गुरुदेव के पास पहुंचे ! सम्पूर्ण वृतांत कहा ! गुरु
ने उन्हें कहा कि आप परीक्षा मे सफल हुए ! आचार्य धरसेन ने सम्पूर्ण द्वादशांग
जिनवाणी का ज्ञान उन दोनो मुनिराज को दिया जिनका नाम मुनिश्री पुष्पदंत व मुनिश्री
भूतबलि था ! ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को के दिन लेखन कार्य पूरा हुआ ! उसी दिन से यह
दिन श्रुत पंचमी कहा जाने लगा !
यह पोस्ट आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी के आज रोहतक मे हुए प्रवचन से
लिया गया है ! जो त्रुटियाँ हैं वो मेरी की हुई है और जो भी ज्ञान वर्धन है वो
आचार्य श्री का दिया हुआ है !
bahut hi badiya
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