मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

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Saturday 21 April 2012

नर तन रत्न अमोल

           एक बार इन्द्र के मन मे कौतुहल जाग गया ! चाहे देवता हो या मनुष्य कौतुहल सब के मन मे जगता है !कोई भी कौतुहल से मुक्त नही है ! जब तक मनुष्य वीतराग नही होता ,कौतुहल का भाव नष्ट नही होता ! इन्द्र के मन मे जब कौतुहल जगा तो यह कि मुझे मनुष्यों की परिक्षा करनी चाहिये ! इस चिंतन को कार्यान्वित किया ! रूप बदल कर पृथ्वी पर आ गया ! एक महानगर मे मुख्य बाजार मे सिद्ध योगी के रूप मे बैठ गया ! यह घोषणा करवा दी कि इस नगर मे अद्भुत सिद्ध योगी आया है ! वह किसी भी कुरूप और भद्दी चीज को सुन्दर बना सकता है !लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी ! किसी ने अपना रूप बदलवाया ,किसी ने अपने गहने बदलवाये ! काला गोरा बन गया ! असुंदर सुन्दर बन गया ! अनेक दिन तक यह उपक्रम चलता रहा ! नगर के प्रत्येक नागरिक ने इस दुर्लभ अवसर का लाभ उठाया ! 
         सन्यासी  ने पूछा -क्या नगर मे कोई ऐसा कोई व्यक्ति है ,जिसने अपनी किसी वस्तु मे न बदलाव करवाया हो ? लोगों ने कहा -महात्मन ! नगर मे और कोई तो नही एक सन्यासी ऐसा जरूर बचा है जिसने ऐसा कुछ नही किया ! सिद्ध योगी स्वयं सन्यासी के पास गया ! बस कुछ देर तक सन्यासी को निहारता रहा ,फिर बोला -बाबा ! तुम्हारे पास कुछ नही है ! शरीर भी जर्जर हो चला है ! ऐसा अवसर फिर कब आएगा ? मै कल जा रहा हूँ ! केवल आज का समय है ! कुछ बदलवाना हो तो सोच लीजिए ! एकदम नौजवान बन सकते हो !
          सन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा -महात्मन !मुझे कुछ नही चाहिए ! 
 विस्मत सिद्ध योगी ने कहा -बाबा !क्यों नही चाहिए ?
सन्यासी  बोला -महात्मन ! इस दुनिया मे मनुष्य जीवन से बढ़कर कोई सुन्दर वस्तु नही है ,और वह मेरे पास है ! आत्मसंतुष्टि से बढ़कर कोई आनन्द नही है और वह मेरे पास है ! यह दुर्लभ सौंदर्य और आनन्द मुझे उपलब्ध है ,मुझे और कुछ नही चाहिए !
सिद्ध  योगी यह सुनकर अवाक रह गया !
          जिसे  अशोक मिल जाता है ,पवित्र आभामंडल मिल जाता है ,उसके लिए इससे बढ़कर कुछ भी नही है ,कोई आनन्द नही है ! जहाँ शोक है ,वहाँ समस्या है ! जहाँ अशोक है ,वहाँ कोई समस्या नही है !यह अशोक की     उपलब्धि   पवित्र भामंडल और आभामंडल की सन्निधि मे सहज सम्भव है !
जिस  व्यक्ति को पवित्र आभामंडल मिल जाता है ,उसके लिए कुछ भी पाना शेष नही रहता ! वह ऐसे सौंदर्य को उपलब्ध हो जाता है ,जिसकी काल्पन भी नही की जा सकती !
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक "अंतस्तल का स्पर्श " से

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