मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

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Friday 1 June 2012

कर्म और द्रव्य ,क्षेत्र ,काल और भाव


द्रव्य ,क्षेत्र ,काल और भाव के अनुरूप ही कर्म अपना फल देते हैं ! कई बार बहुत पीड़ा होने बाद भी हम उसको सहन कर लेते हैं ,हम उसे छोड़ कर अपने काम मे लग जाते हैं तब वो कर्म अपना फल थोडा थोडा देकर के या कि किसी दुसरे रूप मे अपना फल देकर के चला जाता है ! इसी तरह जब कर्म उदय मे आते हैं तब उनके साथ भी जैसा व्यवहार करना चाहे ,वैसा व्यवहार कर सकते हैं ! जब तक वे हमारे साथ संचित हैं हम उनको अगर वहीँ का वहीँ भी नष्ट करना चाहें तो नष्ट भी कर सकते हैं ! हम उसमे बदलाव भी कर सकते हैं ,भले कर्मों का सामर्थ्य बढ़ा सकते हैं ,बुरे कर्मों का सामर्थ्य भीतर भीतर घटा सकते हैं !
जब हम कोई बुरा कर्म कर लेते हैं उसके बाद जो प्रायश्चित करते हैं ,पश्चाताप करते हैं या कि अच्छा कर्म करना शुरू कर देते हैं तब वो जो बुरे कर्म मेरे साथ संचित हुए हैं उनका दबाब कम हो जाता है और मेरे साथ भले कर्मो का जो संचय है वो बढ़ना शुरू हो जाता है !
अगर मुझे कोई कार्य करना है तो मै उस कार्य को करने से पहले ,चुनने से पहले देखूं कि उस कार्य मे मेरे से बहुत अधिक जीवों का घात तो नही हो रहा है ,मेरे को बहुत अधिक झूठ तो नही बोलना पड़ रहा है उस कार्य मे ,मेरे को कहीं चोरी करने के लिए मजबूर तो नही होना पड़ेगा उस काम मे ,ऐसा तो नही है जिसमे मुझे अपने व्यव्हार को इतना मलिन करना पड़े लोगों से ! ऐसा धंधा तो नही कर रहा हूँ जिससे मेरी आसक्ति बढती चली जाए !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें”  से सम्पादित अंश

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