मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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Wednesday 20 June 2012

निजरूप निहारो अन्तर में,


हरी भरी कोमल कलियों और सुन्दर सुमनों से लदी टहनियों ने तने से कहा – “हम कितने सुन्दर हैं ?” प्रश्न की प्रतिक्रिया को भीतर ही पचाकर ,संयत स्वर में तने ने कहा –“हाँ ,बेटी तुम बहुत सुन्दर हो !
सौन्दर्य का दर्प इससे तृप्त न हो पाया ! वह अपनी महत्ता का स्वीकार तो चाहता ही है ,दुसरे की हीनता स्वीकृति भी आवश्यक मानता है !
“और तुम कितने कुरूप हो जी ! काला भूत सा रंग और खुरदरी खाल ! छि:!”
प्रतिक्रिया कंठ  तक भर आई ! फिर भी अपने आप को यथा सम्भव मसोसकर तने ने कहा –“हाँ ,बेटी ! मुझमे सौन्दर्य नहीं है ,पर जिस सौन्दर्य पर तुम इतना इतरा  रही हो उसके आधार रस का भण्डार प्रकृति ने मुझे ही दिया है ! मै उसका झूठन तुम्हे न दूँ ,तो तुम्हारा सौन्दर्य कुछ ही पलों में बिखर जाएगा !”
सन्त कहते है रूप का नहीं, स्वरुप का सत्कार करो ! किस रूप पर मुग्ध होते हो ? मक्खी के पंख से भी पतली शरीर की एक परत को उतारते ही सुन्दर सलोना दिखाई पड़ने वाला यह शरीर घृणा की चीज बन जाएगा !
दीप का नहीं ,ज्योति का, सीप का नही ,मोती का सत्कार करना चाहिये !
मत रूप निहारो दर्पण में ,दर्पण गंदला हो जाएगा
निजरूप निहारो अन्तर में, अन्तर उजला हो जाएगा
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

Monday 18 June 2012

उपहास


एक आदमी चला जा रहा था ! अचानक एक पत्थर उसके पैरों से टकराकर पास खड़े गुलाब के पौधे से जा लगा ! गुलाब के फुल ने उसकी यह दशा देखी तो व्यंग्य से हँस पड़ा और उपहास मिश्रित शब्दों में पत्थर को घूरते हुए कहा –हूँ ........ये भी कोई जिन्दगी है ......सिर्फ ठोकर !
पत्थर अपनी स्थिति को जानता था उसने फुल के यह शब्द सुने तो मर्माहत हो उठा , बोला कुछ नहीं !
कुछ समय बाद एक दूसरा आदमी उधर से गुजरा ! उसने पत्थर में छिपी संभवनाओं को एक क्षण में ही जान लिया ! मूर्तिकार जो था ! घर ले आया और तराशना शुरू कर दिया ! कुछ ही समय में एक सुन्दर प्रतिमा बनाकर अपने पूजाघर में विराजमान कर दिया !
अगले दिन उसने उस प्रतिमा की पहली पूजा की ! पहली पूजा में उसने जो फुल अर्पित किया वह वही था ,जो कल तक इसी पत्थर का उपहास कर रहा था ! उसने पत्थर का यह रूप देखा तो शर्म से झुक गया ! प्रतिमा खड़ी खड़ी मुस्कुरा रही थी !
हर व्यक्ति पत्थर की तरह अपने अंदर की भगवत्ता को प्रकट कर सकता है ! अभिमान ही करना है तो भीतर बैठी भगवत्ता का करो ! जिनसे प्रत्येक सत्ता में विराजमान भगवत्ता को जां लिया ,वह अभिमान कर ही नहीं सकता ! 
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

Sunday 17 June 2012

selfishness


आचार्य समंतभद्र कहते हैं कि हम सबके चित्त में एक आठ फेन वाला भयंकर विषधर बैठा है जो कूल ,जाति ,रूप ,ज्ञान ,धर्म, बल, वैभव, धन और ऐश्वर्य के अभिमान से आत्मा को जड़ताक्रान्त कर रहा है ! इस पर अभिमान करना अज्ञान है ! ये सब आत्मा के स्वभाव नहीं विभाव हैं ! इनके सहारे अपने आपको उठाने  की कामना करना अज्ञान है ! इसका परिणाम सदैव बुरा होता है !
जलधर नया नया आया
और ,
पवन के सहारे
जैसे आसमान पर चढ गया ,
पर ,
उसे बाहरी जगत का अनुभव ही कब था !
दुसरों के सहारे ऊँचा उठना
भय से खाली नहीं होता ,
इसे वह नहीं जानता था ,
पवन में अपना हाथ खींचा
और
जलधर नीचे आ गया !
सन्त कहते हैं कि पर के सहारे अपने आपको उठाना चाहोगे तो यही परिणति होगी ! जीवन को यथार्थ ऊँचाई प्रदान करना चाह्ते  हो तो आत्मगुणों का विकास करो !
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

Saturday 16 June 2012

प्रतिशोध


एक साधु नाव पर यात्रा कर रहे थे |नाव पर कुछ युवक भी सवार थे |युवकों को मजाक सूझा |उन्होंने साधू महाराज की हँसी उड़ाना शुरू कर दी |साधू सच्चे साधु थे |उन्होंने अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं की |युवकों ने साधु की समता को उनकी कमजोरी समझा |वे एकदम उद्दण्डता पर उत्तर आये|पर साधु महाराज पूर्णत: अविचलित रहे |
     सन्त कहते हैं-साधुओं का स्वभाव चन्दन की भान्ति होता है जो जलाये जाने पर भी सुगन्ध प्रदान करता है| एक युवक ने साधु महाराज को नदी में ढकेलना चाहा कि तभी जल देवता प्रकट हो गये |जल देवता ने साधु महाराज से निवेदन करते हुए कहा –“महाराज ! इन दुष्टों ने आपके साथ दुर्व्यवहार  किया है ,मै अभी नाव पलट कर  इनको सबक सिखाता हूँ ! सन्त ने तुरंत देवता को रोकते हुए कहा –नहीं नहीं ,ऐसा मत करो ,नाव पलटने से क्या होगा ? पलटना ही है तो इनकी बुद्धि पलट दो !
सन्त कि वाणी सुनकर सारे युवक पानी –पानी हो गये ! सभी उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे ! घमण्ड में चूर होकर जिन्होंने तुम्हे हानि पहुंचाई है ,तुम उन्हें अपने क्षमा व्यवहार से जीत लो ! 

मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

Friday 15 June 2012

अनेकान्त का सिद्धान्त


आचार्य विनोबा भावे के पास एक व्यक्ति गया और बोला –बाबा ,लोग मेरी बात नहीं मानते ,जबकि मै बिलकुल सही होता हूँ ,सही कहता हूँ ! मेरी ही बात सही होती है ! विनोबा ने कहा –तुम जो कहते हो वही सही होता है ? ठीक है बताओ –हिमालय किस दिशा में है ? उसने कहा –“उत्तर” में ! विनोबा ने कहा –यही प्रश्न तुम किसी चीन के निवासी से पूछोगे तो उसका क्या जबाब होगा ? “दक्षिण” में  ! विनोबा ने कहा तुम कहते हो उतार में और फिर हिमालय दक्षिण में कैसे हो गया ? तुम्हारी बात सही है फिर उसकी बात भी सही कैसे हो गयी ? हिमालय तुम्हारी अपेक्षा से उत्तर में है और उसकी अपेक्षा से दक्षिण में ! इसीलिए तुम भी सही हो और वह भी सही है !
यही अनेकान्त का दृष्टिकोण है ! इससे हठ की  स्थितियां टाली जा सकती हैं ,क्रोध की स्थितियां टाली जा सकती हैं ! आग्रह ,पूर्वाग्रह ,दुराग्रह ये सब कलह के कारण हैं ! इनके पीछे कई बार बड़ी विषम स्थितियां बन जाती हैं !
हम किसी विषय पर एक दृष्टिकोण रखते हैं ,दूसरा उसी विषय पर अलग दृष्टिकोण रखता है ! दोनों की विचारधारा ,चिंतन की दिशा अलग अलग है और दोनों अपने चिंतन को ही सही माने तो यह सोच का अन्तर टकराव का कारण बन जाता है ,कलह का कारण बन जाता है !
रूचि भेद से तथा चिंतन भेद से आग्रह उत्पन्न होता है ! आग्रह से टकराव की स्थितियां बनती हैं ! अपनी अपनी बात पर अड़ेगें तो लड़ेगें ही ! जैन दर्शन ने इसी आग्रह की कलह को मिटाने के लिए अनेकान्त का सिद्धान्त दिया है ! मै जो सोच रहा हूँ ,कर रहा हूँ वह सही कर रहा हूँ –इसकेसाथ यह भी सोचो कि दूसरा जो कर रहा है ,सोच रहा है वह उसके दृष्टिकोण से सही ही कर रहा होगा !
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

Thursday 14 June 2012

“कर्म कैसे करें”


जब सत्याग्रह हो रहा था तो गांधीजी के नेतृत्व में सब सत्याग्रहियों के लिए एक बुढा बाबा रेल के डिब्बे में चढ कर पैसे इकठ्ठे कर रहा था ! एक खुले कनस्तर में ,उसके अंदर जो जितना देता उतना डाल देता उसी में रसीद भी रखी थी ,जो जितना दे अपने आप उतने रुपए की रसीद बना ले ,बूढ़े बाबा को ज्यादा दीखता नहीं था इसीलिए  कहता अपने हाथ से लिख लो कितने रूपये सत्याग्रहियों को दिये ,दो रूपये दिये ,पांच रूपये या दस जितने दिये उतने की रसीद बना लो खुद ही ! एक चोर ने देख लिया कि ये तो बढ़िया चीज है ,इतने सारे कनस्तर में पैसे अपने आप एक मिनट में मिल जायेंगे ! बस थोडा सा धक्का भर देना है बूढ़े को ! उसको ये मालूम नहीं था ये पैसे किसलिए ले रहा है बुढा ! उसको तो क्या देर लगनी थी , बाबा जरा सा इधर उधर हुए कि उठाया कनस्तर और फुर्र हो लिया, उतर गया ट्रेन से ! अब उसने जाकर के देखा ये पैसे तो सत्याग्रहियों के लिए इकठ्ठे कर रहा था वो तो वह पानी पानी हो गया ! मन में बड़ा कचोट हुई ,अरे ये तो मैंने इतना भले  काम में रूकावट डाल दी ! मुझे तो कुछ रुपए मिल जायेंगे पर इतना बड़ा कार्य ही रुक जाएगा ! अब क्या करूँ ? संभल गया जैसे तैसे करके उसी ट्रेन को दोबारा पा लिया ! डिब्बे को ढूँढकर उस बाबा के पास जाकर उस कनस्तर को ज्यो का त्यों रख दिया और उस दिन जो भी कुछ चोरी चकारी से जो कुछ प्राप्त किया था वो भी उस कनस्तर में डाल दिया !
आगे से कान पकडे कि अब से चोरी नहीं करूँगा ! कभी कभी जीवन में ऐसा अवसर आता है कि कोई कार्य हो जाता है ,भला कार्य कि जिससे हमारे जीवन के सारे बुरे कर्म नष्ट हो सकते हैं !
मुनिश्री 108 क्षमा सागर जी की पुस्तक “कर्म कैसे करें”  से सम्पादित अंश