मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Friday 31 August 2012

तुम महान हो



तुम महान हो
तथागत बुद्ध किसी अनार्य प्रदेश में विहार कर रहे थे ! वहाँ के लोगों ने बुद्ध को बड़ी यातनाएं दी ! कष्ट को देखकर आनन्द ने कहा –प्रभू ! यह गाँव छोड़ दीजिए !
तथागत ने कहा –वत्स ! यदि अगले गाँव में भी यही भेंट मिली तो ?
तो हम वह भी छोड़ देंगें !
आंतरिक पुलक और धैर्य की स्थिति में तथागत ने कहा –वत्स ! एक यात्री दावानल बुझाने घर से निकला और रास्ते में जंगल की छोटी छोटी चिंगारियां उछल उछल कर गिरने लगी तो क्या वह घबराकर मार्ग छोड़ देगा ? हार कर लौट जाएगा ?
नहीं भंते ! वह अपनी ध्येय की ओर बढ़ता ही जाएगा !आनन्द ने विनम्रता से उत्तर दिया !
वत्स –हम भी जन्म मरण की दावानल बुझाने  निकले हैं ! देह कष्ट की इन चिंगारियों से मुकाबला करते हुए आगे बढते जाना है ,निंदा प्रहार से तो क्या मरण दायी त्रास से भी नहीं घबराना है ! आनन्द –तुम् महान हो !अपनी महत्ता को समझो ! अपने ध्येय का चिंतन करो ....... सुख दुःख से अप्रभावित रहने वाला ही सच्चा  साधक बन सकता है !
लोहा अग्नि में पड़कर स्वयं अग्नि रूप बन जाता है ! सोना अग्नि में पड़कर शुद्ध हो जाता है ! लेकिन हीरा अग्नि में पड़कर भी अपने स्वभाव को नहीं भूलता ! उस पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं रहता !
कुछ मनुष्य लोगे के समान कष्ट आने पर ऐसा दिखाते है कि जैसे समूचा जीवन ही एक कष्ट गाथा बन गयी हो ? कुछ मनुष्य सोने के समान कष्ट पाकर अधिक तेजस्वी प्रतीत होते हैं जैसे कष्ट उनके जीवन में वरदान बनकर आये हों !
कुछ मनुष्य हीरे के समान दुखों की भावना और कष्टों की तपन से सर्वथा अस्पर्श्य रहते हैं ! उन पर सुख दुःख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता !

Thursday 30 August 2012

मनोमंत्र


मनोमंत्र
मानव का उत्थान पतन सब ,
                 अंतर्मन पर अवलंबित है
निज पर का हित और अहित सब
              मात्र इसी पर आधारित है !

उजला या काला भविष्य है ,
               वर्तमान के भाव तंत्र में
जो चाहो सों बन सकते हो
              महाशक्ति है मनोमंत्र में !

पापी या पुण्यात्मा तुमको ,
             करे तुम्हारा अंतर्मन ही
सबसे पहले इसे सवारों
         मूल कर्म का है चिंतन ही !

जब भी सोचो अच्छा सोचो ,
   मन को सौम्य ,शांत शुभ गति दो
अन्धकार युत जीवन पथ को
     ज्योतिर्मय निज पर हित मति दो !
उपाध्याय अमर मुनि जी की पुस्तक “अमर क्षणिकाएं” से


Wednesday 29 August 2012

आचार व्यवहार का चमत्कार


आचार व्यवहार  का चमत्कार
गांधी जी के जीवन की एक घटना है ,वे जब इंग्लैंड में थे तो एक पादरी ने सोचा कि यदि मै गांधी को यीशु का भक्त बना दूँ ,अर्थात इसाई बना दूँ तो हिन्दुस्तान में लाखों लोग अपने आप ही इसाई बन जायेंगे ! पादरी ने गांधी जी को संपर्क किया और अनुरोध किया कि आप धर्म चर्चा के लिए प्रति रविवार को मेरे निवास पर पधारें ताकि कुछ समय हम बैठ कर धर्म चर्चा कर सकें ! गांधी जी ने सहर्ष उनका यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया ! रविवार को पादरी ने उनके लिए निरामिष भोजन (अर्थात शुद्ध शाकाहारी भोजन) की व्यवस्था कर दी !
पादरी के बेटों ने यह सब देख कर कहा –पिताजी यह सब क्या हो रहा है ,और किसलिए ?
मेरा मित्र गांधी हिन्दुस्तानी है ,वह मांस नहीं खाता ! इसीलिए शाकाहारी भोजन की व्यवस्था की है –पादरी ने व्यंग्य से कहा !
गांधी मांस क्यों नहीं खाता ? बच्चों ने आश्चर्य से पूछा !
वह कहता है कि जैसे हम सब में प्राण हैं वैसे ही प्राण पशु पक्षियों में भी हैं इसीलिए जैसा कोई हमें मारकर खाए तो हमें दर्द का अहसास होगा ,वैसा ही दर्द का अहसास उन्हें भी होता है –पादरी ने फिर व्यंग्य से कटाक्ष किया !आखिर हिन्दुस्तानी जो है ..........
बच्चों पर पादरी के कथन की प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई ! वे बोले –पिताजी ! यह तो अच्छी बात है ,हमें भी मांस नहीं खाना चाहिये !
बेटा यह तो उनके धर्म की बात है ,हमारे धर्म की नहीं –पादरी ने उपेक्षा से कहा !बच्चे उसका मुहँ देखते रह गये ! उनके मन में कौतुहल उठा –“अच्छी बात तो किसी भी धर्म की हो माननी ही चाहिये” !
गांधी जी हर रविवार को आते ! धार्मिक चर्चाएँ होती ! कभी कभी बच्चे भी उसे सुन लेते ! गांधीजी का मधुर करुणामयी व सभ्य व्यवहार ,शांत व प्रेम से ओतप्रोत चेहरा बच्चों के ह्रदय को  अनायास ही अपनी ओर खींचने लगा ! एक दिन बच्चों ने पादरी से कहा –पिताजी ! गांधीजी के धर्म की बातें हमें अच्छी लगी है , आज से हम भी मांस नहीं खायेंगें !
पादरी के पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी ! मै  गांधी को इसाई बनाना चाहता था ,यहाँ तो मेरे अपने बच्चे ही हिंदू बनने लगे हैं !
अगले रविवार को जब गांधीजी आये तब भोजन के उपरान्त पादरी ने कहा –मै आज से अपना निमंत्रण वापस लेता हूँ !
गांधीजी मधुर मुस्कान के साथ पादरी की आँखों में झाँकने लगे !पादरी झुंझला कर बोला –मिस्टर गांधी ! मै हिन्दुस्तान के कल्याण के लिए तुम्हे इसाई बनाना चाहता था .यहाँ तो तुम मेरे ही बेटों पर हमला बोलने लगे हो ! यह मुझे बर्दाश्त नहीं हो सकता !
गांधीजी उसकी मूर्खता पर मन ही मन हँस रहे थे ,वह धोखे से अपना धर्म फैलाना चाहता था ,यहाँ गांधी जी अपने जीवन से ही धर्म का पाठ पढ़ा रहे थे !
जो धर्म का आचरण नहीं करता ,वह जीवन भर धर्म चर्चा करके भी उसके रस को नहीं जान पाता ,जैसे चम्मच दाल का स्वाद नहीं जान पाती !किन्तु जो धर्म का आचरण करता है ,वह धर्म का स्वाद क्षण भर में ही पहचान  लेता है जैसे जीभ दाल का स्वाद तुरंत जान लेती है ! 
शास्त्रों के हजार उपदेश से आचार का एक चरण श्रेष्ठ होता है ,उपदेश और चर्चा से धर्म का वास्तविक सौंदर्य ढक जाता है ,किन्तु चरित्र में वह सम्पूर्ण तेजस्विता के साथ प्रकट हो जाता है !

Tuesday 28 August 2012

दीप से दीप जले


दीप से दीप जले
“क्षुल्लक कुमार” एक राज कुमार था ,लेकिन संस्कारवश वह अपनी माता यशोभद्रा  साध्वी के पास बचपन में ही दीक्षित हो कर धर्म साधना व ज्ञानार्जन करने लगा था ! युवावस्था प्राप्त होने पर उसे  सँसार के सुखों की लालसा उत्पन्न हो गयी ! जब दबाने पर भी वह तरंग रुक न सकी तो वह अपनी साध्वी माँ के पास गया और क्षुल्लक अवस्था छोड़ कर गृहस्थ जीवन में जाने की अनुमति मांगी ! साध्वी माँ ने सोचा –थोडा भटक गया है शायद ! संबोधित किया –कम से कम बारह वर्ष मेरे साथ रह कर धर्म साधना कर फिर तुम्हारा जैसा मन करे तो वैसा निर्णय लेना ! ज्ञान ध्यान की बातें सुनते सीखते हुए उसे बारह वर्ष बीत गये लेकिन उसके भोगाकुल मन पर कुछ प्रभाव न पड़ा ! साध्वी माँ के पास जाकर घर वापस जाने की अनुमति मांगी !
स्नेहवश और करुणा वश साध्वी की आँखें भीग गयी –कहा ! जाकर मेरी गुरुनी महत्तरा आर्यिका के पास जाकर आज्ञा लो ,यदि वो आज्ञा दे दें तो ......
गुरुनी जी के पास जाने पर उन्होंने कहा –तुम मेरे पास रहकर बारह वर्ष धर्म साधना करो फिर देखा जाएगा ! विकारों की उछाल मन से निकली नहीं थी लेकिन फिर भी वह मन मसोसकर किसी तरह बारह वर्ष पूर्ण होने का इन्तजार करने लगा !
बारह वर्ष और बीते ! उन्हें आर्यिका माता जी द्वारा उपाध्याय जी के पास भेज दिया गया और फिर बारह वर्ष के बाद उपाध्याय जी द्वारा आचार्य जी के पास भेज दिया गया ! आचार्य द्वारा भी उसे बारह वर्ष और रुकने को कहा तो वह खिन्न हो गया और मन ही मन फैंसला कर लिया कि अब की बार समय पूरा होते ही किसी की आज्ञा लिए बगैर ही घर के लिए रवाना हो ही जाऊँगा !
इसी उहापोह में उसने अपने जीवन के अडतालीस वर्ष गुजार दिये ! सब कुछ किया ,धर्म श्रवण ,पठन , स्वाध्याय आदि लेकिन मन में जो विषय विकारों के भाव पैदा हो चुके थे वो नहीं निकल पाए !
समय पूरा होते ही वह सांसारिक सुखों का अनुभव करने को बगैर किसी की अनुमति लिए स्वच्छंद स्वतंत्र सांसारिक यात्रा के लिए निकल पड़ा !
चलते चलते साकेतपुर नगर में पहुंचा तो शाम हो गयी थी और नगर के उद्यान में वहाँ एक नाटक खेला जा रहा था ! सहस्त्रों मुष्य वहाँ विराजमान होकर वह नृत्य और गायन की अद्भुत महफ़िल का मजा ले रहे थे क्षुल्लक मुनि के पाँव वहीँ रुक गये ! मन में तो सँसार बसा ही  था उसके बस तन से भी वह भावों में बहकर नाटक का आनन्द लेने लगा !
शीतल मधुर चांदनी बिखरने लगी थी ! मंद मंद पवन चल रही थी !नर्तकी के मधुर स्वर पायल की झंकारों के साथ दिग दिगंत को मुखरित कर रहे थे !उसके अंगों की लचक ,कटाक्षों का उन्माद दर्शकों को अपनी मादकता के वेगवान प्रवाह में बहाए लिए जा रहा था !
रात के तीन पहर कब बीत गये पता ही नहीं चला !लोगों की आँखों पर जैसे कि जादू सा छाया हुआ था ! नर्तकी के अंग प्रत्यंग इतना समय नृत्य करते करते शिथिल होने लगे थे ,उसकी आँखे भारी और शिथिल सी होने लगी तब उस नृत्य मण्डली की बूढी आका ने सोचा ,अब खेती पकने का समय आया अर्थात पारितोषिक मिलने का समय आया तो नर्तकी शिथिल होकर झपकियाँ लेने लगी है तब उसने गीत का आलाप भरते हुए ये कहा –
सुटठु गाइयं , सुटठु वाइयं , सुटठु  नच्चियं साम्सुन्दरी !
अणुपालिय  दीहराइयं ,उसूमिणम्  ते मा  पमायए  !!
सुन्दरी ! तुने लंबे समय तक सुन्दर गाया ,सुन्दर बजाया और सुन्दर नृत्य किया ! अब थोड़े से समय के लिए प्रमाद न कर ! यही तो फल मिलने का समय है ! छुल्लक मुनि खड़ा खड़ा यह अभिनय देख रहा था ,ज्योंही उसने यह गाथा सुनी उसकी तन्द्रा टूट गयी ,चिंतन करने लगा तो जैसे कि अन्तर निद्रा खुल गयी ! तुरंत उसने कंधे पर पड़ा रत्न कम्बल उतारा और वृद्ध नर्तकी को भेंट कर दिया !उधर राजकुमार ने अपने कुंडल उतारे और नर्तकी की झोली में डाल दिये ! पास ही एक कूल वधु खड़ी थी उसने अपने गले से रत्न हार उतारा और नर्तकी को थमा दिया ! इधर राज मन्त्री खड़ा था ,उसने अपनी हीरे की अंगूठी उतारी और नर्तकी को भेंट कर दी !
मुनि ,राजकुमार ,कुलवधू और राज मंत्री को इस प्रकार धन बरसाते हुए देख कर राजा की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयी !
उसने पहले मुनि की और व्यंग्य भरी दृष्टि डाली और कहा –नृत्य गीत पर इतने मुग्ध कि एक लाख मुद्राओं का रत्न कम्बल दान कर दिया !
राजन ! इस नर्तकी की गाथा से जो बोध मिला वह इस रत्न कम्बल के मूल्य से कहीं बहुत अधिक है ! मै भी एक राजकुमार था दीर्घ काल तक घर से बाहर रहकर साधना की लेकिन अब अन्त समय में भोगों की ,विषय वासनाओं की और मन दौड रहा था इसीलिए वापस गृहस्थ जीवन की और जा रहा था कि नर्तकी की इस गाथा ने झकझोर दिया
 अणुपालिय  दीहराइयं ,उसूमिणम्  ते मा  पमायए  !!
दीर्घ काल तक जिस पथ का अनुसरण किया अब थोड़े से के लिए उसे छोड़कर प्रमत्त मत हो –मुझे जगा गया !अडतालीस वर्ष की साधना और माँ ,आर्यिका ,उपाध्याय और आचार्य का सहवास भी जो मुझमे न जगा पाया ,इस नर्तकी की एक गाथा ने जगा दिया और मेरा साधक जीवन पतित होते होते बच गया ! इस कारण प्रसन्नता में मैंने वह रत्न कम्बल नर्तकी को दे दिया !
राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने अब राजकुमार पर निगाह डाली –पुत्र ! तुमने क्यों अपना रत्न जडित कुंडल नर्तकी को भेंट कर दिए ?
पिताश्री ! अपराध क्षमा हो ! मै भटक गया था ! विष आदि का प्रयोग करके आपकी हत्या के प्रयास में था कि नर्तकी का ये वाक्य मुझे जगा गया ,सोचा अब पित्ताजी तो वैसे ही बूढ़े हो गये हैं ! क्या पता कितना समय रह गया बस ? क्यों जिस पिता की इतने समय सेवा की ,उसकी हत्या का पाप लेकर जियूँगा और यह विचार आते ही मैंने अपने कुंडल उतार कर दे दिये !
राजकुमार की बात सुनकर राजा का मन आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से भार उठा –एक ओर  खड़ी कूल वधु की ओर दृष्टि डाली और पूछा –पुत्री ! तुमने क्यूँ अपना बेशकीमती हार नर्तकी को पेश कर दिया !
लज्जावश कुलवधू की आँखें झुक गयी ! महाराज –पति बारह वर्ष से परदेस गये हैं ,उनका विरह अब नहीं सहा जा रहा था और आज इस राग रंग की महफ़िल को देखकर मेरा मन और धैर्य का बाँध जैसे टूट ही गया था और मै अपने  ही कुलधर्म की मर्यादा तोड़ने को मन ही मन तैयार हो गयी थी कि नर्तकी की इस गाथा ने मुझे पतित होने से बचा लिया !बाढ़ वर्ष तो बीत ही गये अब थोड़े ही समय की बात है अब इतना इन्तजार किया तो थोडा और सही ! क्षणिक भावावेश के कारण कूल को कलंकित क्यों करूँ ,इसी को मैंने उपकार मान कर नर्तकी को हार भेंट कर दिया !
कुलवधू की बात पूरी हुई तो राजा ने मंत्री को देखा –मन्त्रिवर आपने क्यों अपनी हीरे की अंगूठी नर्तकी को पेश कर दी ?
राजन ! क्या कहूँ ? अब कहते हुए जबान भी साथ नहीं देती है ! थोड़े से धन के प्रलोभन के कारण जीवन भर जिस राज्य का नमक खाया उसी के साथ गद्दारी करने चला था कि नर्तकी के वाक्य ने मुझे चेता दिया ! इसी बोध प्राप्ति के कारण मैंने अपनी अंगूठी निकालकर नर्तकी को दे दी !
राग रंग की महफ़िल में अब श्रृंगार रस की जगह शांत रस का स्त्रोत उमड़ पड़ा ! मुनि ,राजकुमार ,कुलवधू और मंत्री के उदबोधक प्रसंग सुनकर राजा का मन प्रबुद्ध हो गया ! सोचा –अब मेरे जीवन की सांध्य बेला आ गयी ! कब तक इन भोगों में लीन रहूँगा ? अब तो यह सब छोड़कर आध्यात्म की साधना में ही लीन होना चाहिये ! राजपुत्र को सिंहासन सौंपा और मुनि के साथ जाकर आचार्य से दीक्षा ले कर स्व कल्याण के मार्ग पर लग गया !
जागृति की जब लहर उठती है ,तो वह एक ही लहर अनेक हृदयों को नवजीवन दे जाती है ! एक ही दीप अनेक दीप जला देता है ! दीप से दीप प्रज्वलित होते जाते हैं !
उपाध्याय अमर मुनि जी की “जैन इतिहास की अमर कथाएं”   से
 (शब्दों के चयन में हुई किसी त्रुटि के लिए मै क्षमा प्रार्थी हूँ ,विषय वस्तु को संक्षिप्त करने के लिए ऐसा किया गया है )