मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

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Monday 9 July 2012

कंजूस


मम्मन सेठ राजगृही नगरी का एक बड़ा श्रेष्ठि था ! वह बड़ा लोभी और कंजूस था ! वृद्धावस्था आ जाने पर भी उसकी तृष्णा दिनों दिन बढती जा रही थी ! वह ढंग से खाता पीता भी नहीं था ! प्राय: जो लोग कंजूस होते हैं वै न तो स्वयं अपनी संपत्ति का भोग कर पाते हैं न ही दूसरों को उदारता पूर्वक देते हैं !  यही स्थिति उसकी थी !
एक दिन उसने अपनी सारी संपत्ति का आकलन किया और सोचा कि कोई लूट न ले जाए ,इस कारण से सारी संपत्ति को बेचकर एक रत्न जडित बैल बनवाया ! उसे अपने घर के तहखाने में रख दिया ! तब उसके मन में विचार आया कि मैंने अपनी कमाई  से एक बैल तो तैयार किया और लेकिन इसकी जोड़ी का दूसरा बैल भी तो होना चाहिये ! तब सोचा कि अभी मुझमे बल है मेहनत करके मै और धन जोड़ कर एक बैल और बनाऊं ऐसा ही !
बरसात का समय था ! उसने देखा नदियाँ अपने उफान पर हैं ! उसमे बड़े बड़े लकडियों के गठठे अपने आप ही बहते चले आ रहे हैं ! यदि मै नदी तक जाकर लकडियाँ इकठ्ठी करूँ तो काफी पैसा कमा सकता हूँ ! घर से वह लंगोटी में निकला ताकि कपडे न भीग जाएँ ! पानी में गया और बहती हुई लकडियों को किनारे पर खींच कर लाने का प्रयत्न करने लगा ! महारानी चेलना अपने महल के झरोखे में खड़ी हुई देख रही थी ! उसे देखते ही महारानी का मन दया से भर गया !  उसने राजा श्रेणिक से कहा कि आपके राज्य में एक व्यक्ति इतना दीनहीन है जो इतनी मूसलाधार वर्षा में भी प्राणों की बाजी लगाकर लकडियाँ निकाल रहा है ! आप उसे बुलाकर उसकी समस्या का निदान करें !
सैनिकों द्वारा सेठ को दरबार में बुलाया गया ! राजा ने उसे पूछा –भाई  तुम्हे ऐसी क्या कमी पड़ रही है जो इतनी विषम परिस्थितयों में भी लकडियाँ बटोर रहे हो ?
सेठ ने कहा –क्या करूँ ! मेरे पास एक बैल है उसके जोड़े का दूसरा बैल नहीं है ,मै चाहता हूँ कि उसकी जोड़ी पूरी हो जाए !
सम्राट ने कहा –बस इतनी सी बात है ! मेरी गौशाला में चलो और अपनी पसन्द का बैल ले लो ! सम्राट के साथ वह गौशाला में गया और उसे कोई बैल पसन्द आने का प्रश्न ही कहाँ था ! श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर ऐसा कैसा बैल है तुम्हारा जिसकी बराबरी का बैल हमारे गौशाला में नहीं है ! उत्तर मिला –इसके  लिए आपको मेरे घर पर ही चलना होगा ! राजा, रानी व मंत्री अभयकुमार को लेकर उसके घर पंहुचा ! तहखाने में पहुँचते ही राजा विस्मित रह गया और कुपित होकर बोला –भले आदमी ! इतना सब होते हुए भी तुम लोभवश और अधिक संपत्ति जोड़ना चाह्ते हो ! मान लो एक बैल और हो भी जाएगा तो भी तुम्हारी लालसा शांत नहीं होगी ! याद रखो यह सब संपत्ति यहीं की यहीं पड़ी रह जायेगी ! धिक्कार है तुम्हारे इस जीवन को !
राजा की फटकार का भी मम्मन सेठ पर कोई असर नहीं हुआ ! उसने राजा की सारी बातें चुपचाप सुन ली और उन्हें बिदाकर अपने धंधे में लग गया ! शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि अपनी इसी धन लिप्सा के कारण वह मरकर सातवें नरक में गया !
धन ही जिसके जीवन का साध्य है उसकी ऐसी ही परिणति होती है ! धन को जीवन निर्वाह का साधन मानकर चलना चाहिए ! धन जीवन का साध्य नहीं है ! धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है ,पर अनिवार्यता नहीं ! जीवन निर्वाह के लिए धन का संचय करो ,पर उसे आसक्ति का रूप मत लेने दो ! धन की आसक्ति मनुष्य को ऐसे अंधकूप में धकेल देती है जिससे निकल पाना बहुत कठिन होता है !
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

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