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Sunday 22 July 2012

सँसार की उलटी रीत


सँसार की उलटी रीत 

तिमिर   छाया   हुआ  है  घोर  इस सँसार में
विष का प्याला पी के मानव कह रहा ये प्यार है

उलटी  होती  जा रही जग की सारी रीत है
घृणा में बदलती जाती जग की सारी प्रीत है
नंगी  धार  गंगा की  बंधी हुई  बह रही
भास्कर  की किरण भी रो रो के कह रही
पूर्ण  चन्द्र होते हुए भी घोर अन्धकार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह प्यार है !!

वैश्या को मिल रहे वस्त्र के  उपहार है
सती   सावित्री का  होता तिरस्कार है
चोर लुटेरे को फूल माला सब पहना रहे
साधुओं को देखो आज सब दफना रहे
बर्फ के  नीचे  छुपा रहे अन्धकार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह  प्यार है !!

घृणा  की  छैनी  ले प्रेम  प्रस्तर तोड़ रहे
वासना को प्रेम समझ उसके पीछे दौड रहे
सत्य  को  सूल  बता  ढूंढ ढूंढ तोड़ रहे
पाप अत्याचार  को  फूल समझ जोड़ रहे
अग्नि को बुझाने डाल रहे तेल धार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा ये प्यार है !!

कमल पत्र पे जमी जो ओस की बूँद है
प्रभात होते ही देखो मिटती ओस बूंद है
मानव  के  जीवन की ऐसी ही कहानी
पल पल आयु बह रही ज्यों दरिया का पानी
आत्म तन तरु से पक्षी उड़ने को तैयार है
विष का प्याला पी के मानव कह रहा यह प्यार है !!

मुनिश्री 108 सौरभ सागर जी “सृजन के द्वार पर” में

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