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Tuesday 28 August 2012

दीप से दीप जले


दीप से दीप जले
“क्षुल्लक कुमार” एक राज कुमार था ,लेकिन संस्कारवश वह अपनी माता यशोभद्रा  साध्वी के पास बचपन में ही दीक्षित हो कर धर्म साधना व ज्ञानार्जन करने लगा था ! युवावस्था प्राप्त होने पर उसे  सँसार के सुखों की लालसा उत्पन्न हो गयी ! जब दबाने पर भी वह तरंग रुक न सकी तो वह अपनी साध्वी माँ के पास गया और क्षुल्लक अवस्था छोड़ कर गृहस्थ जीवन में जाने की अनुमति मांगी ! साध्वी माँ ने सोचा –थोडा भटक गया है शायद ! संबोधित किया –कम से कम बारह वर्ष मेरे साथ रह कर धर्म साधना कर फिर तुम्हारा जैसा मन करे तो वैसा निर्णय लेना ! ज्ञान ध्यान की बातें सुनते सीखते हुए उसे बारह वर्ष बीत गये लेकिन उसके भोगाकुल मन पर कुछ प्रभाव न पड़ा ! साध्वी माँ के पास जाकर घर वापस जाने की अनुमति मांगी !
स्नेहवश और करुणा वश साध्वी की आँखें भीग गयी –कहा ! जाकर मेरी गुरुनी महत्तरा आर्यिका के पास जाकर आज्ञा लो ,यदि वो आज्ञा दे दें तो ......
गुरुनी जी के पास जाने पर उन्होंने कहा –तुम मेरे पास रहकर बारह वर्ष धर्म साधना करो फिर देखा जाएगा ! विकारों की उछाल मन से निकली नहीं थी लेकिन फिर भी वह मन मसोसकर किसी तरह बारह वर्ष पूर्ण होने का इन्तजार करने लगा !
बारह वर्ष और बीते ! उन्हें आर्यिका माता जी द्वारा उपाध्याय जी के पास भेज दिया गया और फिर बारह वर्ष के बाद उपाध्याय जी द्वारा आचार्य जी के पास भेज दिया गया ! आचार्य द्वारा भी उसे बारह वर्ष और रुकने को कहा तो वह खिन्न हो गया और मन ही मन फैंसला कर लिया कि अब की बार समय पूरा होते ही किसी की आज्ञा लिए बगैर ही घर के लिए रवाना हो ही जाऊँगा !
इसी उहापोह में उसने अपने जीवन के अडतालीस वर्ष गुजार दिये ! सब कुछ किया ,धर्म श्रवण ,पठन , स्वाध्याय आदि लेकिन मन में जो विषय विकारों के भाव पैदा हो चुके थे वो नहीं निकल पाए !
समय पूरा होते ही वह सांसारिक सुखों का अनुभव करने को बगैर किसी की अनुमति लिए स्वच्छंद स्वतंत्र सांसारिक यात्रा के लिए निकल पड़ा !
चलते चलते साकेतपुर नगर में पहुंचा तो शाम हो गयी थी और नगर के उद्यान में वहाँ एक नाटक खेला जा रहा था ! सहस्त्रों मुष्य वहाँ विराजमान होकर वह नृत्य और गायन की अद्भुत महफ़िल का मजा ले रहे थे क्षुल्लक मुनि के पाँव वहीँ रुक गये ! मन में तो सँसार बसा ही  था उसके बस तन से भी वह भावों में बहकर नाटक का आनन्द लेने लगा !
शीतल मधुर चांदनी बिखरने लगी थी ! मंद मंद पवन चल रही थी !नर्तकी के मधुर स्वर पायल की झंकारों के साथ दिग दिगंत को मुखरित कर रहे थे !उसके अंगों की लचक ,कटाक्षों का उन्माद दर्शकों को अपनी मादकता के वेगवान प्रवाह में बहाए लिए जा रहा था !
रात के तीन पहर कब बीत गये पता ही नहीं चला !लोगों की आँखों पर जैसे कि जादू सा छाया हुआ था ! नर्तकी के अंग प्रत्यंग इतना समय नृत्य करते करते शिथिल होने लगे थे ,उसकी आँखे भारी और शिथिल सी होने लगी तब उस नृत्य मण्डली की बूढी आका ने सोचा ,अब खेती पकने का समय आया अर्थात पारितोषिक मिलने का समय आया तो नर्तकी शिथिल होकर झपकियाँ लेने लगी है तब उसने गीत का आलाप भरते हुए ये कहा –
सुटठु गाइयं , सुटठु वाइयं , सुटठु  नच्चियं साम्सुन्दरी !
अणुपालिय  दीहराइयं ,उसूमिणम्  ते मा  पमायए  !!
सुन्दरी ! तुने लंबे समय तक सुन्दर गाया ,सुन्दर बजाया और सुन्दर नृत्य किया ! अब थोड़े से समय के लिए प्रमाद न कर ! यही तो फल मिलने का समय है ! छुल्लक मुनि खड़ा खड़ा यह अभिनय देख रहा था ,ज्योंही उसने यह गाथा सुनी उसकी तन्द्रा टूट गयी ,चिंतन करने लगा तो जैसे कि अन्तर निद्रा खुल गयी ! तुरंत उसने कंधे पर पड़ा रत्न कम्बल उतारा और वृद्ध नर्तकी को भेंट कर दिया !उधर राजकुमार ने अपने कुंडल उतारे और नर्तकी की झोली में डाल दिये ! पास ही एक कूल वधु खड़ी थी उसने अपने गले से रत्न हार उतारा और नर्तकी को थमा दिया ! इधर राज मन्त्री खड़ा था ,उसने अपनी हीरे की अंगूठी उतारी और नर्तकी को भेंट कर दी !
मुनि ,राजकुमार ,कुलवधू और राज मंत्री को इस प्रकार धन बरसाते हुए देख कर राजा की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयी !
उसने पहले मुनि की और व्यंग्य भरी दृष्टि डाली और कहा –नृत्य गीत पर इतने मुग्ध कि एक लाख मुद्राओं का रत्न कम्बल दान कर दिया !
राजन ! इस नर्तकी की गाथा से जो बोध मिला वह इस रत्न कम्बल के मूल्य से कहीं बहुत अधिक है ! मै भी एक राजकुमार था दीर्घ काल तक घर से बाहर रहकर साधना की लेकिन अब अन्त समय में भोगों की ,विषय वासनाओं की और मन दौड रहा था इसीलिए वापस गृहस्थ जीवन की और जा रहा था कि नर्तकी की इस गाथा ने झकझोर दिया
 अणुपालिय  दीहराइयं ,उसूमिणम्  ते मा  पमायए  !!
दीर्घ काल तक जिस पथ का अनुसरण किया अब थोड़े से के लिए उसे छोड़कर प्रमत्त मत हो –मुझे जगा गया !अडतालीस वर्ष की साधना और माँ ,आर्यिका ,उपाध्याय और आचार्य का सहवास भी जो मुझमे न जगा पाया ,इस नर्तकी की एक गाथा ने जगा दिया और मेरा साधक जीवन पतित होते होते बच गया ! इस कारण प्रसन्नता में मैंने वह रत्न कम्बल नर्तकी को दे दिया !
राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने अब राजकुमार पर निगाह डाली –पुत्र ! तुमने क्यों अपना रत्न जडित कुंडल नर्तकी को भेंट कर दिए ?
पिताश्री ! अपराध क्षमा हो ! मै भटक गया था ! विष आदि का प्रयोग करके आपकी हत्या के प्रयास में था कि नर्तकी का ये वाक्य मुझे जगा गया ,सोचा अब पित्ताजी तो वैसे ही बूढ़े हो गये हैं ! क्या पता कितना समय रह गया बस ? क्यों जिस पिता की इतने समय सेवा की ,उसकी हत्या का पाप लेकर जियूँगा और यह विचार आते ही मैंने अपने कुंडल उतार कर दे दिये !
राजकुमार की बात सुनकर राजा का मन आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से भार उठा –एक ओर  खड़ी कूल वधु की ओर दृष्टि डाली और पूछा –पुत्री ! तुमने क्यूँ अपना बेशकीमती हार नर्तकी को पेश कर दिया !
लज्जावश कुलवधू की आँखें झुक गयी ! महाराज –पति बारह वर्ष से परदेस गये हैं ,उनका विरह अब नहीं सहा जा रहा था और आज इस राग रंग की महफ़िल को देखकर मेरा मन और धैर्य का बाँध जैसे टूट ही गया था और मै अपने  ही कुलधर्म की मर्यादा तोड़ने को मन ही मन तैयार हो गयी थी कि नर्तकी की इस गाथा ने मुझे पतित होने से बचा लिया !बाढ़ वर्ष तो बीत ही गये अब थोड़े ही समय की बात है अब इतना इन्तजार किया तो थोडा और सही ! क्षणिक भावावेश के कारण कूल को कलंकित क्यों करूँ ,इसी को मैंने उपकार मान कर नर्तकी को हार भेंट कर दिया !
कुलवधू की बात पूरी हुई तो राजा ने मंत्री को देखा –मन्त्रिवर आपने क्यों अपनी हीरे की अंगूठी नर्तकी को पेश कर दी ?
राजन ! क्या कहूँ ? अब कहते हुए जबान भी साथ नहीं देती है ! थोड़े से धन के प्रलोभन के कारण जीवन भर जिस राज्य का नमक खाया उसी के साथ गद्दारी करने चला था कि नर्तकी के वाक्य ने मुझे चेता दिया ! इसी बोध प्राप्ति के कारण मैंने अपनी अंगूठी निकालकर नर्तकी को दे दी !
राग रंग की महफ़िल में अब श्रृंगार रस की जगह शांत रस का स्त्रोत उमड़ पड़ा ! मुनि ,राजकुमार ,कुलवधू और मंत्री के उदबोधक प्रसंग सुनकर राजा का मन प्रबुद्ध हो गया ! सोचा –अब मेरे जीवन की सांध्य बेला आ गयी ! कब तक इन भोगों में लीन रहूँगा ? अब तो यह सब छोड़कर आध्यात्म की साधना में ही लीन होना चाहिये ! राजपुत्र को सिंहासन सौंपा और मुनि के साथ जाकर आचार्य से दीक्षा ले कर स्व कल्याण के मार्ग पर लग गया !
जागृति की जब लहर उठती है ,तो वह एक ही लहर अनेक हृदयों को नवजीवन दे जाती है ! एक ही दीप अनेक दीप जला देता है ! दीप से दीप प्रज्वलित होते जाते हैं !
उपाध्याय अमर मुनि जी की “जैन इतिहास की अमर कथाएं”   से
 (शब्दों के चयन में हुई किसी त्रुटि के लिए मै क्षमा प्रार्थी हूँ ,विषय वस्तु को संक्षिप्त करने के लिए ऐसा किया गया है )

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