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Friday 15 June 2012

अनेकान्त का सिद्धान्त


आचार्य विनोबा भावे के पास एक व्यक्ति गया और बोला –बाबा ,लोग मेरी बात नहीं मानते ,जबकि मै बिलकुल सही होता हूँ ,सही कहता हूँ ! मेरी ही बात सही होती है ! विनोबा ने कहा –तुम जो कहते हो वही सही होता है ? ठीक है बताओ –हिमालय किस दिशा में है ? उसने कहा –“उत्तर” में ! विनोबा ने कहा –यही प्रश्न तुम किसी चीन के निवासी से पूछोगे तो उसका क्या जबाब होगा ? “दक्षिण” में  ! विनोबा ने कहा तुम कहते हो उतार में और फिर हिमालय दक्षिण में कैसे हो गया ? तुम्हारी बात सही है फिर उसकी बात भी सही कैसे हो गयी ? हिमालय तुम्हारी अपेक्षा से उत्तर में है और उसकी अपेक्षा से दक्षिण में ! इसीलिए तुम भी सही हो और वह भी सही है !
यही अनेकान्त का दृष्टिकोण है ! इससे हठ की  स्थितियां टाली जा सकती हैं ,क्रोध की स्थितियां टाली जा सकती हैं ! आग्रह ,पूर्वाग्रह ,दुराग्रह ये सब कलह के कारण हैं ! इनके पीछे कई बार बड़ी विषम स्थितियां बन जाती हैं !
हम किसी विषय पर एक दृष्टिकोण रखते हैं ,दूसरा उसी विषय पर अलग दृष्टिकोण रखता है ! दोनों की विचारधारा ,चिंतन की दिशा अलग अलग है और दोनों अपने चिंतन को ही सही माने तो यह सोच का अन्तर टकराव का कारण बन जाता है ,कलह का कारण बन जाता है !
रूचि भेद से तथा चिंतन भेद से आग्रह उत्पन्न होता है ! आग्रह से टकराव की स्थितियां बनती हैं ! अपनी अपनी बात पर अड़ेगें तो लड़ेगें ही ! जैन दर्शन ने इसी आग्रह की कलह को मिटाने के लिए अनेकान्त का सिद्धान्त दिया है ! मै जो सोच रहा हूँ ,कर रहा हूँ वह सही कर रहा हूँ –इसकेसाथ यह भी सोचो कि दूसरा जो कर रहा है ,सोच रहा है वह उसके दृष्टिकोण से सही ही कर रहा होगा !
मुनिश्री 108  प्रमाण सागर जी “धर्म जीवन का आधार” से संपादित अंश

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