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Saturday 24 March 2012

निशंकित अंग

सम्यक दर्शन के आठ अंगों मे पहला अंग है  निशंकित  !
           तत्व अर्थात वस्तु का स्वरुप ,यही है ,ऐसा ही है ,इससे भिन्न नही है और न अन्य प्रकार से सम्भव है ! इस प्रकार लोह निर्मित खडग आदि पर चढ़े हुए पानी के सद्रश सन्मार्ग मे संशय रहित अकंप ,अविचल रूचि या श्रद्धा को निशंकित  अंग कहते हैं !
          अर्थात चाहे कोई राजी हो या नाराज हो जाए ,संपत्ति प्राप्त हो या विपत्ति का सामना करना पड़े ,मरे या जीवे ,कैसा भी क्यों न हो किन्तु समझदार आदमी सत्य मार्ग से पीछे एक कदम भी नही हटता ! निशंक हो कर उस पथ पर डटा रहता है ,क्योंकि उसे दुनियादारी के सुख दुःख की जरा भी परवाह नही होती !
         हानि लाभ ,यश अपयश, जीवन मरण मे किसी प्रकार का हर्ष विषाद नही करता !
         विचारशील मनुष्य की निगाह हर समय औचित्त्य पर रहती है ,अतएव वह जगह की जगह व्यवस्था करता हुआ भी किसी प्रकार के झूठे प्रलोभन मे नही  फंसता और इसीलिए उसको किसी भी प्रकार की खुशामद करने की या किसी से डरने की जरूरत नही होती ! अगर वह डरता है तो अनुचित वर्ताव करने से ,अन्यथा मार्ग से और उसे पक्षपात होता है तो एक न्याय मार्ग से !
         ऊपर बताया जा चूका है कि आत्मोन्नति का सच्चा मार्ग विवेक रूप त्याग है ,जो अहिंसा का पूर्ण प्रतीक है और उसे स्वीकार करना ही मनुष्यत्व है ! उसे छोड़कर मनुष्यत्व कोई दूसरी चीज नही है ! इस प्रकार दृढ विश्वास पूर्वक सन्मार्ग पर तलवार की धार के समान बिलकुल बेधडक होकर चलना ,यह किसी सयाने आदमी का सबसे पहला गुण है !
मूल रचना  :    "रत्न करंड  श्रावकाचार "मानव धर्म  आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी 
 हिन्दी व पद अनुवाद : आचार्य श्री ज्ञान सागर जी व आचार्य श्री विद्या सागर जी    

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