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Thursday 22 November 2012

महिलाओं का बढ़ता आधुनिकीकरण


जैनाचार्य गुरुदेव तुलसी जी की पुस्तक पढ़ रहा था “दीये से दीया जले” ....“विज्ञापन संस्कृति” नाम से गुरुदेव का लेख आज बहुत प्रासंगिक लगा !....ये लेख भी उन्हें ही समर्पित !

कुछ दिनों पहले मैंने एक कविता पोस्ट की थी जिसमे मेरी बहनों की ,नारी की काफी बडाई की गयी थी ! आज कुछ आलोचना करना चाहूँगा ! मेरी बात से कुछ लोगों को या कुछ बहनों को भी शायद लगे कि क्या यही मेरी दृष्टि होती है सार्वजनिक और धर्म स्थलों पर भी ........लेकिन यह मेरा सार्वजनिक जीवन को देखने का नजरिया है ! किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं !
आज नारी के सिर से (हिंदू समाज में ) पल्लू तो उतर ही गया है ! (कोई ये ना समझे कि मै परदे का पक्षधर हूँ) सार्वजनिक स्थानों पर जैसे बसों ,ट्रेनों ,शौपिंग काम्पलेक्सों में साफ़ देखें तो पता चलता है कि महिलाएं अपने आप को तथाकथित आधुनिक दिखाने की राह पर कहाँ जा रही हैं ! जैसा मैंने वास्तविक जीवन में देखा है वो ही लिख रहा हूँ ....
मै जो बात आज विशेष तौर पर रखने जा रहा हूँ वो यह है कि कुछ महिलाओं ने तो सारी सीमा ही लांघ दी हैं आज ! सार्वजनिक धर्म सभाओं ,मंदिरों स्थानकों व गुरुओं के पद विहार में भी उन्हें ये ख्याल नहीं रहता कि उनके आगे गुरुदेव चल रहे हैं ,पीछे साधर्मी भाई बहन चल रहे है /बेठे हैं ! सामने भगवान कि मूरत को कोई एकाग्रता से निहार रहा है और उसके बिलकुल  सामने आकर खड़े हो कर दर्शन करना कोई बुरा नहीं है ,लेकिन .........अगर बाहें बिलकुल नंगी हों तो ? अगर पीठ पर   पल्ला भी नहीं हो और ब्लाउज अधकटा से भी अधकटा हो तो ?  क्या आप भगवान को अपने अंगोपांग दिखाने आई हैं ? या फिर मन्दिर में आये हुए साधर्मी भाई बहनों को ?

ऐसा नहीं है कि सभी महिलाएं इसी दिशा में जा रही हैं ,कुछ महिलाएं जिन्हें मै व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ  बहुत पढ़ी लिखी होने के बावजूद ,कम उम्र में ही इतनी शालीनता से रहती दिखाई देती है उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करने को दिल चाहता है !

रुकिए ! जरा सोचिये ! आपको किस दिशा में जाना है ? अपने विचार जरुर दीजिए ! किसी भी चर्चा में मै कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करूं तो इसे अपने भले में 
ही समझिए!

गुरुदेव तुलसी जी का लेख अक्षरश: ..........
विज्ञापन संस्कृति
शक्ति ,समृद्धि और बुद्धि  की  अधिष्ठात्री  है नारी ! पौराणिक मिथकों में उजागर नारी का यह स्वरुप उसे अभय स्वावलम्बन और सृजन कि प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित  करता है !  किन्तु यथार्थ के फलक पर भारतीय नारी भीरु ,परावलम्बी और रुढता  की  बडियो में जकड़ी हुई दिखाई देती है ! शक्तिहीन होने के कारण उसके साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाए हो रही है ! कही –कही तो उसे निर्वस्त्र  करके सड़क पर घुमाने जैसे हादसे हो रहे है !देवता और गुरु के समान पूज्य नारी का यह अपमान भारतीय संस्कृति के मस्तक पर कलंक का धब्बा है!
 आर्थिक परावलम्बन नारी जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है !इसी के कारण वह पुरुष का सहारा खोजती है !अपना जीवन अपने ढग से जीने की बात वह सोच ही नहीं सकती !मैं यह नहीं कहता की आर्थिक स्वावलम्बन के लिए उसके मन में उघोग के शिखर पर पहुचने की प्रतिस्पर्द्धा जागे!पर इस क्षेत्र में भी वह इतनी पिछड़ी हुई क्यों रहे की स्वाभिमान से सिर उठाकर भी न चल सके ! बुद्धि और शक्ति का उपयोग अर्थार्जन  में होता है तो क्या घर का संचालन बुद्धि और शक्ति के बिना होना संभव है !एक नारी को पुरे दिन में जितने निर्णय लेने पड़ते है और काम निपटाने पड़ते है ,क्या किसी पुरुष की वश की बात है ?नारी का व्यक्तित्व पुरे परिवार का व्यक्तित्व है !उसके व्यक्तित्व –निर्माण की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए! वह स्वय व्यक्तित्व –शून्य  रहकर अपनी भावी पीढ़ी  का निर्माण कैसे कर सकेगी ?यह बात नहीं है की आज की नारी अपने व्यक्तित्व के प्रति सचेत नहीं है ! एक समय था ,जब नारी को अपने अस्तित्व की भी पहचान नहीं थी !पर वर्तमान युग में वह कही अपनी असिमता बचाने के लिए संघर्ष कर रही है ,कहीं स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है  कहीं व्यक्तित्व के शिखर पर आरोहन कर रही है ! यह दूसरी बात है कि उसके व्यक्तित्व की परिभाषाएँ बदल गयी हैं ! इसका सबसे अधिक असर हुआ है इसके पहनावे पर .........
एक राजस्थानी कहावत है –“लुगाई ढकी ढूमी पूठरी लाग्गे”  वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्री और पुरुष के पहनावे को तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो  पुरुष के अंगोपांग अधिक आवृत रहते हैं ! भारतीय नारी की वेशभूषा पर विचार किया जाए तो उसके कई रूप सामने आ जाते हैं ! एक ओर मुस्लिम नारी के सामने जहाँ बुर्के की बाध्यता है ! अब इस परम्परा में भी बदलाव आ रहा है ,दूसरी ओर हिंदू समाज की महिलायें खुले अंगों वाली वेशभूषा में रूचि रखती हैं ! कुछ महिलायें जो रूढ़ीवादी होने पर भी आधुनिकता के प्रभाव से बच नहीं पायी हैं वे अपने चेहरे को तो आवृत रखती हैं पर पेट को अनावृत रखती हैं !
विज्ञापन संस्कृति में नारी देह का जिस प्रकार दुरूपयोग किया जा रहा है ,उसके प्रतिरोध में महिला संगठन सक्रिय बनें यह इस युग की अपेक्षा है ! किन्तु इस अपेक्षा से आँखें मूंदकर विज्ञापनों ,माडलों  और फिल्मों की वेशभूषा को मानक मानकर उसे प्रचलित करना कहाँ की समझदारी है ? महिलाओं की विकृत वेशभूषा को देखकर पुरुषों की वासना को उत्तेजना मिले और वे उनसे दुर्व्यवहार करने की कोशिश करें तो इसमें दोष किसका ?
समाज या सरकार महिलाओं को क्या सुरक्षा देगी ? सबसे बड़ा सुरक्षा कवच है उनका विवेक और संयम ! वेशभूषा के सन्दर्भ में चालु प्रवाहपतिता को मोड देने के लिए जागरूक महिलाएं एक क्षण रूककर सोचें ! उनका दायित्व है कि वे आवश्यकता , शालीनता और तथाकथित आधुनिकता के बीच रही भेदरेखा को पूरी गंभीरता से उभारकर महिला समाज को एक नयी दिशा दें !
जैनाचार्य  गुरुदेव तुलसी जी की पुस्तक “दीये से दीया जले” से

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