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Saturday 3 November 2012

कृतत्वशील व अकृतत्व


महर्षि वशिष्ठ ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जल –कमल-जीवन का मन्त्र देते हुए कहा था “बाहर में सदा सक्रिय एवं कृतत्वशील  रहकर भी भीतर में अकृतत्व का अनुभव करते रहो ! यही जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है !”
एक बार छत्रपति शिवाजी एक दुर्ग का निर्माण कार्य करवा रहे थे ! समर्थ गुरु रामदास जी ,जिनके चरणों में सम्पूर्ण राज्य समर्पित कर छत्रपति संरक्षक के रूप में वहाँ सेवा कर रहे थे ,सहसा वहाँ से गुजरे !
गुरु चरणों में विनयावत हो छत्रपति ने दुर्ग का निरीक्षण करने की प्रार्थना की ! धनाधन निर्माण कार्य चल रहा था ! रामदास ने पूछा –छत्रपति ! यह क्या करवा रहे हो !
छत्रपति ने कहा –“गुरुदेव ,बस यूँ ही ! इस बार अकाल की काली छाया से सम्पूर्ण प्रांत संत्रस्त हो रहा था ,लोगों को न रोटी मिल रही थी ,न रोजी ! तो कुछ प्रबंध कर दिया है ! हजारों लोगों का पेट भर रहा है ,सैंकडों माताएं अपने आँचल से लिपटे दूधमुहों का पोषण कर रही हैं”!
“शिवा की वाणी में कृतत्व का अहं दीप्त हो रहा है ,इसे जैसे लग रहा है कि सम्पूर्ण सृष्टि का यंत्र उसी के हाथों से संचालित हो रहा है” गुरु की अन्तर भेदी दृष्टि  ने  शिवा के अन्तर में झाँका और इशारा किया –शिवा ! जरा देखो ! वह   पत्थर  यहाँ  क्यों पड़ा है !
यूहीं दुर्ग की दीवार में कहीं चिना जाने को ....शिवा ने कहा !
“अच्छा इसे तोडो” .........गुरु की आज्ञा पाकर के पत्थर को तोडा गया  ! उसके बीच से पानी का एक छोटा सा कुण्ड निकला ,जिससे फुदककर एक मेंढक बाहर आकर गिरा !
शिवाजी इस घटना को गंभीरता से देख रहे थे ! गुरु ने गंभीर दृष्टि से शिवा को देखा –शिवा ! इस मेंढक के जल एवं भोजन का प्रबंध भी तुमने किया होगा ! गुरु के प्रश्न की सहज तीक्षनता ने शिवा के अन्तर अहं को बींध डाला !भीतर ही भीतर अहं यों चूर हो गया जैसे कोई मिट्टी के ढेले पर पत्थर की गहरी चोट पड़ी हो !शिवाजी गुरु चरणों में झुक गये !
“शिवा ! मनुष्य अज्ञान की आंधी में भटक कर सोचता है इस पृथ्वी का संचालक मै ही हूँ ,मेरे ही चरणों की आहट से ये पृथ्वी की धडकन चल रही है !” गुरु की ज्ञान गरिमा मयी वाणी मुखरित हो उठी !

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