मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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Friday 24 February 2012

ग्रहण और त्याग

            गर्मी से गर्मी कटती है ,कांटे से काँटा निकलता है ! ग्रहण करते हुए मेरी बुद्धि नही जाती कि मै अधर्म कर रहा हूँ ! यह मेरा स्वभाव नही है ! त्याग करते हुए तेरी बुद्धि जाती है कि त्याग करना आत्मा का स्वभाव नही है ! कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि त्याग करना आत्मा का स्वभाव नही है ,तो "समयसार" मे यह भी कहा गया है कि ग्रहण करना मेरा स्वभाव नही है ! पूजा करना मेरा स्वभाव नही है तो साथ मे यह भी कहें कि भोजन करना भी स्वाभाव नही है ! पूजा करते  समय यह भाव आ जाता है कि यह सब व्यर्थ है ! क्या रखा है इसमें ? पूजन का द्रव्य एक थाली से दूसरी थाली मे चढाना ,क्या पुण्य का ,धर्म का काम हो सकता है ?लेकिन क्या कभी यह सोचा कि इस थाली का पेट रुपी थाली मे डालना भी धर्म होता है क्या ? तुम जिस थाली मे डालते हो वह सात धातुओं से युक्त दुर्गंधमय है ? और इसमें तुम सुगन्धित खाद्य पदार्थ डालते हो और निकलता है दुर्गन्ध युक्त पदार्थ ? यह अज्ञानता कभी ज्ञान मे आएगी ? पूजा की दोनों थाली गन्दी नही होती ; लेकिन तुम जिस थाली मे सुगन्धित भोजन डालते हो वह थाली दुर्गन्ध युक्त पदार्थ निकालती है ! क्या इसे भी अधर्म कहा कभी ? पूजन दिन मे एक बार किया और भोजन ? दिन मे दस बार  ! आज तथा कथित स्वाध्यायी बंधुओं मे यह परिणाम नही आये कि संकल्पी हिंसा का त्याग कर दूँ ! ऐसा झूठ न बोलूं जिससे किसी की आजीविका चली जाए ! ऐसा कुशील न करूँ !जिस पर मेरा अधिकार नही है ,उस पर नियत खराब नही करूँ ! इतना भी नियम लिया नही और धर्म छोड़ दिया !वह व्यक्ति ऐसा है जिसने कीचड़ लगाना छोड़ा नही और जल का त्याग कर दिया ; पाप रुपी कीचड़ आत्मा पर डालना छोड़ा नही और पुण्य रुपी जल का त्याग कर दिया ! 
मुनि श्री 108 सुधासागर जी महाराज "दस धर्म सुधा " मे

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