मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Wednesday 9 January 2013

अपने ही जाल में फंस जाए मकड़ी


अपने ही जाल में फंस जाए मकड़ी 

एक सम्राट ने बूढ़े राज शिल्पी को आदेश दिया –नदी के तट पर ऐसा एक भवन बनाओ जो सौन्दर्य और सुविधाओं की दृष्टि से अद्वितीय
हो !
राजा के आदेश से शिल्पी ने भवन बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी ! राजा ने तत्काल संभावित धन राशि देकर शिल्पी से कार्य शुरु करने को कहा ! अपार धन राशि देखकर शिल्पी के मन में लालच ने पाँव पसार लिए ! क्यों ना नकली एवं घटिया सामान लगा कर बाकी बची हुई धन राशि अपने पास बचा लूँ !
कुछ ही महीनो के बाद देखने में अति सुन्दर भवन बनकर तैयार हो गया !एक विशाल समारोह में राजा ने उसका उदघाटन करते हुए अपने उद्बोधन में कहा –आज के दिन मै रा शिल्पी की एकनिष्ठ कर्तव्य निष्ठां एवं राजभक्ति  के लिए पुरस्कृत करता हूँ ! यह कहकर राजा ने भवन की चाबी शिल्पी के हाथ में सौंप दी !
अपने ही छद्म से वंचित शिल्पी के चेहरे पर एक फिकी  खुशी चमक रही थी ,जो अन्तर की पीड़ा पर आवरण डाल कर उसे स्पष्ट प्रतिबिंबित कर रही थी !
मनुष्य अपनी ही भूलों से विचित्र स्थितियों में फंस जाता है ! अपने ही छल से स्वयं ठगा जाता है ! नियति उसे कभी माफ नहीं करती ! जब भाग्य की क्रूर गति उसे उसके ही फैलाए हुए जाल में फंसाकर उस पर व्यंग्य करती  है तो वह भीतर ही भीतर आत्मग्लानी से टूटता हुआ अपने पर पश्चाताप करता है !
मकड़ी जैसे अपने तंतुओं से जाल बुनती है और स्वयं ही उसमे फंस कर तडफडाने लगती है ! कभी कभी जीवन में यही स्थिति मनुष्य की, स्वयं हमारी हो भी हो जाती है !
प्रकृति जिसे धर्मशास्त्र ,नियति या कर्म कहते हैं ,सबसे अधिक जागरूक और निष्पक्ष न्याय करती है ! मनुष्य का अन्तरंग उसका साक्षी होता है ,उसकी बुद्धि और भाग्य उसका दण्ड उसे स्वयं देते हैं !

No comments:

Post a Comment