मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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कोई कापीराइट नहीं ..........

Friday 1 February 2013

धन्य हैं मेरे ये चर्म चक्षु


मित्रों जय जिनेन्द्र ...शुभ प्रात: प्रणाम
गुरुदेव की ये धीर गंभीर मुद्रा न जाने कब वापस रोहतक में देखने को मिलेगी! धन्य हैं मेरे ये चर्म चक्षु जिन गुरु की मुनि दीक्षा के गवाह हैं (इन की मुनि दीक्षा 22 जुलाई 1991 को आचार्य श्री कुंथूसागरजी के द्वारा इसी चातुर्मास स्थल पर हुई थी ) उन्हें गुरुदेव का चातुर्मास रोहतक में पाने का सौभाग्य मिला !
गुरुदेव का मंगल विहार संभवत: 14  फरवरी  को दिल्ली की ओर होगा!ऐसे प्रज्ञायोगी आचार्य गुप्तिनंदी जी व संघ के श्री चरणों में  मेरा शत शत नमन ! वंदन !अभिनन्दन!
गुरुदेव ! आपके सानिध्य  में जो समय बीता वह जीवन में अविस्मरणीय  रहेगा ! आपके सानिध्य में  आपकी ही दी हुई शक्ति से मै 21 साल बाद मै किसी 10 दिन के विधान में पूर्ण रूप से बैठ पाया ,जब दसलक्षण पर्व के दौरान आपने दसलक्षण संस्कार व ध्यान शिविर का आयोजन किया ! प्रात:कालीन कक्षा में आपसे जो कुछ भी सीख पाया ,उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करूँगा !
गुरुदेव ! पारिवारिक , सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन में आपसे मै ज्यादा कुछ न सीख पाया ,न कुछ सेवा सुश्रुषा कर पाया ,जाने अनजाने में जो भूल की हैं उन सब के  लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
मित्रों प्रस्तुत है गुरुदेव के कल के मंगल प्रवचन से एक ऐसी घटना जो आज के युग में स्वपन सी प्रतीत होती है !
सिकंदर भारत में आया तो उसने कहीं भी किसी को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी !उसके बारे में एक कहानी प्रसिद्ध  है कि एक बार एक बेटे ने अपनी माँ से कहा –माँ ! सिकंदर के सैनिकों ने सब कुछ लूट लिया और अब जीवन यापन के लिए मेरे पास कुछ नहीं बचा है ! अगर आपके पास कुछ बचा है तो कृपया आप मुझे दे दें ! माँ कुछ घबराई ,सकपकाई और फिर बोली –बेटा ! तुम्हारे पिता को जब दफनाया गया था तब उसकी कब्र के साथ कुछ पैसे दफनाए गये थे –बस वही कुछ बचा है जो याद है मुझे ! सिकंदर के गुप्तचर घुमते हुए जनता की बातें सुनते रहते थे ! उन माँ -बेटा की बात सुनकर सिकंदर ने लोगों की कब्रें तक खुदवाकर उनमे से पैसे निकाल लिए थे !
 उसकी इन सारी  हरकतों  में साथ दिया था तक्षशिला के राजा आंभीक ने ! तक्षशिला के राजा आंभीक से स्वागत पाकर सिकंदर सुस्ताने के लिए तक्षशिला में ठहर गया। एक दिन सायंकाल वह घूमता-घूमता एक गाँव की तरफ निकल गया। वहाँ एक पंचायत हो रही थी। सिकंदर पंचों का न्याय देखने ठहर गया।        
   
   पंचायत की कार्यवाही प्रारंभ हुई। पहला व्यक्ति  बोला-मैंने इस व्यक्ति  से एक खेत खरीदा। हल जोतते समय जमीन के नीचे मुझे एक सोने के सिक्कों से भरा घड़ा मिला। मैंने केवल जमीन खरीदी थी, उसके नीचे की संपत्ति नहीं। इन मुद्राओं पर  इसका  ही अधिकार है मेरा नहीं। किंतु वह मुहरें लेने से इनकार कर रहा है। कृपा कर न्याय किया जाए और इसे स्वर्ण मुद्राएँ लेने को कहा जाए।’’आज्ञा पाकर दूसरा व्यक्ति  बोला-मैंने जमीन बेच दी। उसमें उगने वाली फसल की तरह उसकी अंतरस्थ संपत्ति से भी मेरा कोई सरोकार नहीं। इन मुहरों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। और ये मुहरें मैंने वहाँ दबाई भी नहीं थी इसे ही कहा जाए कि वह सारा स्वर्ण अपने पास रखे।’’ कोई भी पक्ष उन स्वर्ण मुद्राओं को लेने को तैयार न था। पंच बड़े असमंजस में पड़े! बड़ी देर विचार-विमर्श के बार सरपंच ने फैसला दिया।        
   
सरपंच बोला-एक  के  विवाह योग्य लड़की और दुसरे  के विवाह योग्य लड़का है। आप दोनों अपने बच्चों का  विवाह कर दे और वह सारा स्वर्ण वर-वधु  को उनके जीवन विकास के लिए प्रदान कर दे! दोनों  ने पंचायत का फैसला स्वीकार कर लिया और लड़की-लड़के का विवाह कर सारा स्वर्ण उनको दान कर दिया।  
कहते हैं कि यह सब देखकर सिकंदर की आँखें खुल गयी .....कहाँ मै जो किसी के पास एक पैसा भी नहीं छोड़ने वाला और कहाँ ये भारत वर्ष के नागरिक ! जिन्हें पैसे से कोई मोह ही नहीं ! चाहिए तो बस इतना जो न्याय नीति से कमाया हो और जो जीवन यापन के लिए पर्याप्त हो और यहीं से उसे भारत से वापस जाने का   सूझा !
गुरुदेव आचार्य गुप्तिनंदी जी के सायं कालीन प्रवचन से 

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