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Friday 4 November 2011

आभामंडल का रंग –वैज्ञानिक दृष्टिकोण


                 आभामंडल का रंग –वैज्ञानिक दृष्टिकोण
          विभिन्न महापुरुषों के चित्रों में उनके सिर के पीछे प्रकाश रूप आकृति को निर्मित किया जाता है ! आध्यात्मिक जगत में इसे आभामंडल कहते हैं! यह कोई पुरातन रीति या पौराणिक कथा नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है ! जिसे वर्तमान में प्रमाणों से सिद्ध किया गया है ! यह आभामंडल जिसे वैज्ञानिकों ने ‘औरा’(aura)नाम दिया है ,सभी व्यक्तियों के विद्यमान रहता है !जैन दर्शन में इसे तेजस शारीर कहा है जो प्रत्येक जीव  के साथ विभिन्न अवस्था में विद्यमान रहता है ! इस सन्दर्भ में हॉवर्ड एडल मेन एवं वाल्टर जान किल्नेर की खोजे महत्वपूर्ण हैं ,इन वैज्ञानिकों इस औरा को देखने के लिये विभिन्न प्रकार के यंत्रों की भी खोज की है !
        भोतिक विज्ञान  में इस तेजस शारीर (औरा)की भिन्नता उसमे पाए जाने वाले रंग के आधार पर की गई है जिस प्रकार हर व्यक्ति के चेहरे की बनावट में भिन्नता होती है उँगलियों के ,पैरों की लकीरें भी किसी की किसी से नहीं मिलती ,उसी प्रकार आभामंडल के रंगों की गहराई हल्कापन आदि की भिन्नता रहती है !
आभामंडल रंग व्यक्ति की मनोवृतियों का ज्ञान कराता है ,प्रयोगों में निष्कर्ष निकलता है कि औरा किकी कालिमा आसन्न मृत्यु का सूचक है !
          ध्यान चिंतन एवं तप साधना साधना से आपूरित आतम दृष्टाओं ने इन र्रंग संवेदनाओं को और चित्रवृति की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं को वर्ण के आधार पर छ: भागों में विभाजित किया गया है ! जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में ‘षटलेश्या’
के नाम से जाना जाता है ! जैन आचार्यों ने इसकी एक पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया पूर्व में ही उपदिष्ट की है ,जिसे वर्तमान में समझने की आवश्यकता है !
         यह लेश्या प्रकरण हमारे समक्ष हमारी मनोवृतियों का एक इतिवृत प्रस्तुत करते हुए उसमे पायी जाने वाली दूषित वृतियों के परिमाजनार्थ एवं आत्मिक विकास की प्रगति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है !
         आचार्य पुष्पदंत सागर जी की “परिणामों का खेल” से

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