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Saturday 26 November 2011

पंच परमेष्ठी वन्दना


            पंच परमेष्ठी वन्दना
वन्दना आनंद पुलकित विनयनत हो मै करूँ
एक लय हो एक रस हो भाव तन्मयता वरू
सहज निज आलोक से भाषित स्वयं समबुद्ध हैं
धर्म तीर्थंकर शुभंकर वीतराग विशुद्ध हैं
गति प्रतिष्ठा त्रान दाता आवरण से मुक्त हैं
देव अर्हन दिव्य योगज अतिशयों से युक्त हैं
वन्दना .....................
बंधनों की श्रंखला से मुक्त शक्ति स्रोत हैं
सहज निज आत्मलय में सतत ओत:-प्रोत: हैं
दग्ध कर भव बीज अंकुर ,अरुज अज अविकार हैं
सिद्ध परमात्मा परम ईश्वर  अपुनर्वतार हैं
वन्दना ...................
अमलतम आचार धारा में स्वयं निष्णात हैं
दीप सम शत दीप दीपन के लिये प्रख्यात हैं
धर्म शासन के धुरंधर धीर धर्माचार्य हैं
प्रथम पद के प्रवर प्रतिनिधि प्रगति में अनिवार्य हैं
वन्दना ................
द्वाद्शांगी के प्रवक्ता ज्ञान गरिमा पुंज हैं
साधना के शांत उपवन में सुरम्य निकुंज हैं
सूत्र के स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं सदा
उपाध्याय महान श्रुतधर धर्म शासन सम्पदा
वन्दना ...............
लाभ और अलाभ में सुख: दुःख: में मध्यस्थ  हैं
शांतिमय  वैराग्यमय आनन्दमय आत्मस्थ हैं
वासना से विरत आकृति सहज परम प्रसन्न हैं
साधना धन साधु  अन्तर्भाव में आसन्न हैं
 वन्दना.............
रचियता : तेरापंथ के महान जैनाचार्य श्री तुलसी जी

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