मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

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Friday 25 November 2011

संगत कीजे साधू की –भाग 2


                                                    संगत कीजे साधू की –भाग 2
     एक आदमी साधुजनों के पास जाता है ,सज्जन पुरुषों के समीप रहता है तो उसके जीवन में सज्जनता विकसित होती है और दूसरा व्यक्ति व्यसनी और व्यभिचारी के साथ रहता है तो उसके अंदर व्यसन और व्यभिचार के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुए बिना नही रह सकता ! व्यसन और व्यभिचार से अपने आप को बचाने की कोशिश करो ! जैसे लोगों के संसर्ग में रहते हैं ,वैसे ही गुण व दोष बन जाते हैं !
     इसिलिये संत आचार्य कहते हैं ,बुरी संगत से बचो !हो सकता है तुम्हारे अंदर बुराई न हो लेकिन वैसे लोगों के बीच रहना भी एक बुराई है ! एक आदमी शराब नही पीता ,पर शराब की दूकान पर बैठेगा तो दुनिया उसे शराबी कहने से थोड़े ही चुकेगी !
    बद की सोहबत में मत बैठो ,बद का है अंजाम बुरा !
    बद न बनो पर बद कहलाओ ,बद अच्छा बदनाम बुरा !
      हम बद और बदनाम दोनों से बचें ! बद के साथ यदि रहेंगे तो अपने आपको बदनामी से कभी बचा नही सकते ! इसीलिये बदनामी से बचना चाह्ते हों तो बद से बचो और अपने जीवन के विकास का मार्ग चुनो ! भले व्यक्तियों के साथ रहो ! जिस धुल को आप पैरों तले रोंदते हैं वही  धुल जब संत के चरण से लग जाती है तो वह हमारे मस्तक तक पहुँच जाती है , जिसका कोई मूल्य नही वह हमारे माथे तक पहुँच जाती है ,यह संगति का असर है  !
       मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी की ‘दिव्य जीवन का द्वार’ से 


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