मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

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Friday 25 November 2011

संगत कीजे साधू की भाग - 1


              संगत कीजे साधू की   भाग - 1
      लुकमान हकीम अंतिम साँसे गिन रहे थे ,उन्होंने इशारा किया,उनका आशय समझकर उनका बेटा धूपदान में से एक मुठठी चन्दन का चूरा  ले आया ! उसके बाद लुकमान ने दूसरा इशारा किया ,बेटा उसे समझते हुए चूल्हे में से कोयला ले आया ! लुकमान ने कहा दोनों को फेंक दो ! दोनों हाथो को खाली करने को कहा ! उसने कहा –अब अपने हाथों को गौर से देखो ,बताओ इनमे क्या है !बेटा कुछ समझा नही बोला दोनों हाथ तो खाली  हैं ,तो लुकमान ने कहा दोनों हाथ खाली नही है ,तुम अपने दोनों हाथो को गौर से देखो ! उसने गौर से देखा तो उसे लगा कि जिस हाथ में चन्दन का चूरा था वह अभी भी सुगंध बिखेर रहा था और जिस हाथ में कोयला रखा गया था उस हाथ में अभी भी कालिख नजर आ रही थी ! लुकमान ने रहस्य समझाते हुए कहा कि बेटा मेरी तुम्हारे लिये यही अंतिम शिक्षा है ,दुनिया में दो तरह के लोग हैं ,कुछ ऐसे हैं जो चन्दन की तरह सुरभि फैलाते हैं ,चन्दन का चूर्ण अभी भी तुम्हारे हाथ में सुगंध दे रहा है ,जबकि अब चन्दन नही है !कोयले का टुकड़ा तुमने हाथ में रखा था ,तब भी काला था और हाथ से फेंक देने के बाद भी हाथ काला है !,दुनिया में कुछ ऐसे हैं जिनके साथ जब तक रहो तब तक हमारा जीवन महकता है ,उनका साथ छूट जाने पर भी वह महक हमारे जीवन में बनी रहती है ,कुछ लोग ऐसे होते हैं ,जिनके साथ रहने से भी जीवन बिगड़ता है ,और छूटने के बाद भी बिगडा रहता है !
       मनुष्य की मति अपने से हीन व्यक्तियों के संसर्ग से हीन हो जाती है ,समान लोगों के संसर्ग में रहने पर समानता रहती है ,पर अपने से गुणवान व्यक्ति के संसर्ग में रहने से हमारी गुणवत्ता बढती है ,हमारे जीवन में विशिष्टता आती है !
     जहाँ सुमति है ,वहां संपत्ति है !जहाँ कुमति है ,वहां विपत्ति है !
        मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी की ‘दिव्य जीवन का द्वार’ से 

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