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Sunday 18 December 2011

श्रुत की महत्ता


                            श्रुत की महत्ता
             “श्रु” अर्थात सुनना ,”त” अर्थात तल्लीन होना ! तल्लीन हो कर सुनना,यह तो श्रुत का शाब्दिक अर्थ हुआ ! सुनकर उसमे लीन  हो जाना,खो जाना, उसे अपना आचरण बना लेना ! श्रुत का दूसरा अर्थ है वाणी , आप्त के वचन ,आगम ,उपदेश ,आम्नाय ,ज्ञान,जिनवाण आदि !
          श्रुत को सूत्र भी कहते हैं ! सूत्र का सरल अर्थ है सूत ! जैसे सूत (धागा) सहित ,लगी हुई सुईं एकदम गुमती नही ,उसी प्रकार शास्त्र ज्ञान से युक्त जीव भी चौरासी लाख योनियों के मेले में गुमता नही है !
हम सब ज्ञान को लेकर ही ,उसके साथ ही जन्म लेते हैं ! परन्तु उसमे सम्यक व मिथ्या का अंतर तो रहता ही है ,उस पर हमारे संस्कारों के कारण ,वातावरण के कारण मिथ्या का,अहंकार का खोल चढा ही रहता है ! यही वास्तव में यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में बाधक होता है ! भगवान महावीर की वाणी कहती है कि अहंकार से बढ़कर दूसरा कोई भी अज्ञान नही है ! जिस ज्ञान को हम ज्ञान समझते हैं ,हमारा यह ज्ञान मात्र हमारे अहंकार का भोजन है ,उसका एक पोषक तत्व है !   
        श्रुत कि महिमा अत्यंत अनुपम व निराली है ! इसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक अंग से है ! श्रुत के माध्यम से ही हम भगवान के गुणों का गुणगान कर सकते है !अपने अंदर छुपे हुए समस्त गुणों का भी अनुमान कर सकते हैं !
       गृहस्थ का स्वाध्याय उसके लिये पुण्य बन्ध  का कारण है ! किन्तु एक मुनि या आचर्य का स्वाध्याय नीर्जरा का कारण है !
मानव जीवन का सम्पूर्ण विकास श्रुत पर आधारित है ! द्रव्य श्रुत से भाव श्रुत की प्राप्ति ही जीवन के साफल्य की स्थिति है ! मनुष्य पर्याय की सफलता है ! अन्यथा दिव्य श्रुत तो एक बुझे हुए अप्रत्याशित दीपक के सामान है !हमारी स्थिति उस अंधे के समान है जो ज्योति पुंज को देखने में असमर्थ है ! हमारे चक्षु उतने सक्षम नही हैं ,जो स्वयंमेव ही उस प्रकाश को देख सकें !
        श्रुत के अभाव में तप को कुतप ,ज्ञान को कुज्ञान कहा गया है ! इसीलिए जीवन की सार्थकता द्रव्य श्रुत से भाव श्रुत की ओर ,साकार से निराकार की ओर ,स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने  में ही है!
   श्रुत पर सब श्रद्धा धरो,ज्ञान की लो आशीष !
   दिगंबर मुद्रा धार कर ,बन जाओ जगदीश !
आचार्य श्री 108  श्री पुष्पदंत सागर जी “आध्यात्म के सुमन” में      

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