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Sunday 4 December 2011

होऊं नही कृतघ्न कभी मै


                                                      होऊं नही कृतघ्न कभी मै
One ungrateful Man does an injury to all who stand in need of aid.
एक अकृतज्ञ मनुष्य उन सब को हानि पहुंचाता है ,जो सहयोग की आशा में खड़े हैं !
सामजिक दृष्टि से देखें तो कृतघ्नता से तीन हानि हैं ,
(1)    परोपकारक वृति का लोप
(2)    अभिमान की पुष्टि
(3)    प्रेम और आत्मीयता का अभाव
      पहली हानि यदि व्यक्ति कृतघ्न होगा तो दूसरे के मन में परोपकार की वृति का लोप हो जाएगा ! यदि किसी व्यक्ति ने किसी के ऊपर कोई करुणा ,दया की ,उसकी यदि उपेक्षा हो जाती है तो दुसरे आदमी सोचते हैं भैया ! आजकल सेवा का जमाना नही है ! हमने जिनकी सेवा की वो ही हम पर ऐंठ रहा है !
      दूसरी हानि यह है कि कृतघ्न मनुष्य कभी विनम्र नही हो सकता ! अपने बड़े से बड़े उपकारी को को भी बहुमान नही देता –यह है अभिमान की पुष्टि!अभिमान में अकड़ने वाले को हमेशा धरती में दबना पड़ा है ! यह अभिमान का आज तक का इतिहास रहा है !
      और तीसरी बात – अकृतज्ञता के कारण आत्मीयता और प्रेम का अभाव रहता है !कृतघ्न व्यक्ति स्वार्थी होता है !
      कहते हैं कि व्यक्ति सब के प्रति कृतज्ञ बना रहे क्योंकि जो जरा से उपकार के लिये कृतज्ञ रहता है वह व्यक्ति महान प्रसन्नता का अनुभव करता है ! आज राष्ट्र और समाज की बात तो जाने दीजिए ,अपने जन्म दाता माता पिता के प्रति भी प्रेम पूर्ण व्यव्हार नही रहा ! तीन का उपकार दुश्प्रतिकार होता है !वो हैं (1) माता –पिता  (2)भर्ता –जिनके सहारे भरण पोषण होता हो (3) गुरु ,इन तीनों का जो उपकार होता है वह जन्म जन्म की दासता स्वीकार करके भी नही चुकाया जा सकता !इसीलिये इन तीन का सदैव
ऋनी रहना चाहिए !
     माता पिता जिन्होंने हमें जीवन दिया ,हमारे शारीर का एक एक बूंद खून उन्ही के द्वारा प्रदत्त है !क्या हम मूल्य चूका सकते है कभी इसका ? नही ! भर्ता जिसके सहारे हमारा जीवन बना ,जिसने हमें आजीविका दी उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ बनकर रहना चाहिए ! तीसरे हैं गुरु ! माता पिता तो जन्म देते हैं ,मगर गुरु जीवन देते हैं ! गुरुओं से जो दिशा मिलती है वह हमारी दशा को बदलने वाली होती है ! गुरु का एक वचन भी हमारे जीवन के रूपांतरण में बहुत बड़ा कारण बन जाता है !किसी ने सच ही कहा है –‘शीश दिये जो गुरु मिले तो भी सस्ती जान’! तीनो के प्रति जो कृतज्ञता होती है तो हमारे जीवन का विकास होता है !
    कृतघ्न व्यक्ति कभी अपना नही हो सकता ! कृतघ्न व्यक्ति कभी किसी का उपकार नही मान सकता ,चाहे उसके ऊपर करोड़ों उपकार क्यों न किये जाएँ !
   इसीलिये कहा गया है कि एक स्वामिभक्त कुत्ता कृतघ्न मनुष्य से अच्छा है ! कृतघ्नता मनुष्य को नीचता की सीमा से नीचे ले जाती है ! पशु  पक्षी कभी कृतघ्न नही होते ! ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते है ! जिस शेर का डायजनिस ने काँटा निकाला था उस शेर ने उसे तीन दिन का भूखा होने पर भी नही खाया था ,यह कहानी जगत प्रसिद्ध  है ! अग्रेज विचारक होल्टन ने बड़ी अच्छी बात कही है कि –
  पशु भी मानव के प्रति कृतघ्नता छोड़ देते हैं !

     इसीलिए मेरी भावना में भी कहा गया है कि –

    होऊं नही  कृतघ्न  कभी मै ,द्रोह  न मेरे  उर आवे
    गुण ग्रहण का भाव रहे नित् ,दृष्टि न दोषों पर जावे    

मुनिश्री 108 श्री प्रमाण सागर जी की “दिव्य जीवन का द्वार” से

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