मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

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कोई कापीराइट नहीं ..........

Thursday 12 January 2012

स्वाध्याय

प्रत्येक व्यक्ति एक ग्रन्थ है ,यदि वह उसे पढ़ना जानता है ! कहने का आशय यह है कि हमारे अंदर जो ज्ञान छिपा है जो कुछ ग्रंथों मे विवेचन है ,वह इस अंदर बसे आत्मा का ही तो है ,जिसे भूलकर हम बाहर खोज रहे हैं ! अगर अपने को अपने मे (स्व का अध्याय ) खोजना प्रारंभ कर दें तो पा जाएंगें अपने आपको अपने मे ! यही होता है सच्चा स्वाध्याय !
स्वयं स्वयं का ध्यावना , सुहित कारन के काज 
एही   तो    स्वाध्याय   है  , आगम कारण आज 

 जिसको तू खोज रहा बन्दे वह मालिक तेरे अंदर है 
बाहर  के   मंदिर   झूठे हैं ,सच्चा  मंदिर तो अंदर है

Every person is a volume if he/she knows how to read it .The purpose of writing is that whatever knowledge we have in our holy books is the knowledge of this soul ,to which we are searching outside.Searching oneself in his own inner  self is the real thing .
आचार्य श्री 108 विद्याभूषण सन्मति सागर जी "मुक्ति पथ की ओर "मे 

सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार

शुभ प्रात:

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