मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Saturday 7 January 2012

मै ही अपना मित्र व शत्रु

        भगवान महावीर ने कहा -अब तुम ही अपने मित्र हो व तुम ही अपने शत्रु हो ! अब जब मै अपना मित्र व शत्रु हूँ तो बाहर क्यों भटकूँ ? अब समता भाव से मुझे अपने मित्र को पाना है ,अब इसी भाव से मुझे अपने शत्रु को बाहर निकालना भी है ! परन्तु यह इतना सरल नही है कि मित्र और शत्रु कोई व्यक्ति नही है ,और न ही उनका कोई रूप या आकार है ! उनसे न तो मिला जा सकता है न उन्हें निकाला जा सकता है बस इसी तथ्य को समझना अत्यंत आवश्यक है !
       एक व्यक्ति आपको गालियाँ दे रहा है और आप शांत हैं मौन हैं ,दूसरा व्यक्ति आपकी प्रशंसा कर रहा है ,आपको भगवान बोल रहा है तब भी आप मौन हैं ,शांत हैं कुछ भी नही बोल रहे हैं ,यह बात मेरी समझ मे नही आ रही -शिष्य ने आचार्य से कहा ! यही तो तुम्हे सीखना है कुछ आते हैं ,कांटे चढा जाते हैं कुछ फूल चढा जाते हैं ,मात्र दृष्टा  बनकर सब देखता रहता हूँ ,मुझे इस सब से कुछ लेना देना नही रहता ! लेन देन मे सब गडबड हो जाती है ! न तो किसी का नमस्कार मुझे मोक्ष प्रदान कर सकता है ,न किसी की गालियां मुझे नरक प्रदान कर सकती हैं !जब ऐसी कोई बात नही है ,तब मै अपनी शान्ति भला क्यों विचलित होने दूँ ! मैंने तो सबके प्रति समभाव धारण किया है ! इतनी समता आने पर ही इस वीतरागी मार्ग पर चला जाता है !
आचार्य श्री108 श्री  पुष्पदंत सागर जी "परिणामों का खेल"मे
सभी मुनि,आर्यिकाओं ,साधु,साध्वियों,श्रावक,श्राविकाओं
को यथोचित नमोस्तु ,वन्दामि , मत्थेण वन्दामि ,जय जिनेन्द्र,नमस्कार

शुभ प्रात:

No comments:

Post a Comment